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मुखम्मस1
अकबर इलाहाबादी के शेर
रह-ओ-रस्म-ए-मोहब्बत इन हसीनों से मैं क्या रक्खूँ
जहाँ तक देखता हूँ नफ़अ उन का है ज़रर अपना
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हर चंद बगूला मुज़्तर है इक जोश तो उस के अंदर है
इक वज्द तो है इक रक़्स तो है बेचैन सही बर्बाद सही
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इस गुलिस्ताँ में बहुत कलियाँ मुझे तड़पा गईं
क्यूँ लगी थीं शाख़ में क्यूँ बे-खिले मुरझा गईं
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ये है कि झुकाता है मुख़ालिफ़ की भी गर्दन
सुन लो कि कोई शय नहीं एहसान से बेहतर
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टैग : एहसान
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सिधारें शैख़ काबा को हम इंग्लिस्तान देखेंगे
वो देखें घर ख़ुदा का हम ख़ुदा की शान देखेंगे
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पर्दे का मुख़ालिफ़ जो सुना बोल उठीं बेगम
अल्लाह कि मार उस पर अलीगढ़ के हवाले
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मोहब्बत का तुम से असर क्या कहूँ
नज़र मिल गई दिल धड़कने लगा
मरऊब हो गए हैं विलायत से शैख़-जी
अब सिर्फ़ मनअ करते हैं देसी शराब को
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टैग : तंज़
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तुम्हारे वाज़ में तासीर तो है हज़रत-ए-वाइज़
असर लेकिन निगाह-ए-नाज़ का भी कम नहीं होता
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कुछ इलाहाबाद में सामाँ नहीं बहबूद के
याँ धरा क्या है ब-जुज़ अकबर के और अमरूद के
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टैग : इलाहाबाद
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बुत-कदे में शोर है 'अकबर' मुसलमाँ हो गया
बे-वफ़ाओं से कोई कह दे कि हाँ हाँ हो गया
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तुम नाक चढ़ाते हो मिरी बात पे ऐ शैख़
खींचूँगी किसी रोज़ मैं अब कान तुम्हारे
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मुझ को तो देख लेने से मतलब है नासेहा
बद-ख़ू अगर है यार तो हो ख़ूब-रू तो है
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अगर मज़हब ख़लल-अंदाज़ है मुल्की मक़ासिद में
तो शैख़ ओ बरहमन पिन्हाँ रहें दैर ओ मसाजिद में
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टैग : मज़हब
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मैं भी ग्रेजुएट हूँ तुम भी ग्रेजुएट
इल्मी मुबाहिसे हों ज़रा पास आ के लेट
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टैग : तंज़-ओ-मिज़ाह
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वाह क्या राह दिखाई है हमें मुर्शिद ने
कर दिया का'बे को गुम और कलीसा न मिला
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डिनर से तुम को फ़ुर्सत कम यहाँ फ़ाक़े से कम ख़ाली
चलो बस हो चुका मिलना न तुम ख़ाली न हम ख़ाली
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टैग : तंज़-ओ-मिज़ाह
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जो कहा मैं ने कि प्यार आता है मुझ को तुम पर
हँस के कहने लगा और आप को आता क्या है
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लगावट बहुत है तिरी आँख में
इसी से तो ये फ़ित्ना-ज़ा हो गई
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डाल दे जान मआ'नी में वो उर्दू ये है
करवटें लेने लगे तब्अ वो पहलू ये है
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टैग : उर्दू
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पड़ जाएँ मिरे जिस्म पे लाख आबले 'अकबर'
पढ़ कर जो कोई फूँक दे अप्रैल मई जून
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टैग : गर्मी
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अक़्ल में जो घिर गया ला-इंतिहा क्यूँकर हुआ
जो समा में आ गया फिर वो ख़ुदा क्यूँकर हुआ
ईमान बेचने पे हैं अब सब तुले हुए
लेकिन ख़रीदो हो जो अलीगढ़ के भाव से
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रहता है इबादत में हमें मौत का खटका
हम याद-ए-ख़ुदा करते हैं कर ले न ख़ुदा याद
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इश्वा भी है शोख़ी भी तबस्सुम भी हया भी
ज़ालिम में और इक बात है इस सब के सिवा भी
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हम क्या कहें अहबाब क्या कार-ए-नुमायाँ कर गए
बी-ए हुए नौकर हुए पेंशन मिली फिर मर गए
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ख़िलाफ़-ए-शरअ कभी शैख़ थूकता भी नहीं
मगर अंधेरे उजाले में चूकता भी नहीं
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आई होगी किसी को हिज्र में मौत
मुझ को तो नींद भी नहीं आती
लीडरों की धूम है और फॉलोवर कोई नहीं
सब तो जेनरेल हैं यहाँ आख़िर सिपाही कौन है
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टैग : तंज़
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मेरे हवास इश्क़ में क्या कम हैं मुंतशिर
मजनूँ का नाम हो गया क़िस्मत की बात है
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टैग : क़िस्मत
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सय्यद की सरगुज़िश्त को हाली से पूछिए
ग़ाज़ी मियाँ का हाल डफ़ाली से पूछिए
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नाज़ क्या इस पे जो बदला है ज़माने ने तुम्हें
मर्द हैं वो जो ज़माने को बदल देते हैं
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टैग : प्रेरणादायक
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निगाहें कामिलों पर पड़ ही जाती हैं ज़माने की
कहीं छुपता है 'अकबर' फूल पत्तों में निहाँ हो कर
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शैख़ जी घर से न निकले और मुझ से कह दिया
आप बी-ए पास हैं और बंदा बीबी पास है
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मेरी ये बेचैनियाँ और उन का कहना नाज़ से
हँस के तुम से बोल तो लेते हैं और हम क्या करें
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उन की आँखों की लगावट से हज़र ऐ 'अकबर'
दीन से करती है दिल को यही ग़म्माज़ जुदा
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का'बे से जो बुत निकले भी तो क्या काबा ही गया जो दिल से निकल
अफ़्सोस कि बुत भी हम से छुटे क़ब्ज़े से ख़ुदा का घर भी गया
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कमर-ए-यार है बारीकी से ग़ाएब हर चंद
मगर इतना तो कहूँगा कि वो मा'दूम नहीं
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टैग : कमर
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ग़ज़ब है वो ज़िद्दी बड़े हो गए
मैं लेटा तो उठ के खड़े हो गए
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टैग : मिज़ाह
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मस्जिद का है ख़याल न परवा-ए-चर्च है
जो कुछ है अब तो कॉलेज-ओ-टीचर में ख़र्च है
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लोग कहते हैं बदलता है ज़माना सब को
मर्द वो हैं जो ज़माने को बदल देते हैं
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इन को क्या काम है मुरव्वत से अपनी रुख़ से ये मुँह न मोड़ेंगे
जान शायद फ़रिश्ते छोड़ भी दें डॉक्टर फ़ीस को न छोड़ेंगे
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कॉलेज से आ रही है सदा पास पास की
ओहदों से आ रही है सदा दूर दूर की
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लगावट की अदा से उन का कहना पान हाज़िर है
क़यामत है सितम है दिल फ़िदा है जान हाज़िर है
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रहमान के फ़रिश्ते गो हैं बहुत मुक़द्दस
शैतान ही की जानिब लेकिन मेजोरिटी है
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टैग : तंज़-ओ-मिज़ाह
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जवानी की दुआ लड़कों को ना-हक़ लोग देते हैं
यही लड़के मिटाते हैं जवानी को जवाँ हो कर
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टैग : जवानी
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दुख़्तर-ए-रज़ ने उठा रक्खी है आफ़त सर पर
ख़ैरियत गुज़री कि अंगूर के बेटा न हुआ
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अब तो है इश्क़-ए-बुताँ में ज़िंदगानी का मज़ा
जब ख़ुदा का सामना होगा तो देखा जाएगा
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टैग : ख़ुदा
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हक़ीक़ी और मजाज़ी शायरी में फ़र्क़ ये पाया
कि वो जामे से बाहर है ये पाजामे से बाहर है
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टैग : मिज़ाह
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बस जान गया मैं तिरी पहचान यही है
तू दिल में तो आता है समझ में नहीं आता
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