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ज़माना सख़्त कम-आज़ार है ब-जान-ए-असद
वगरना हम तो तवक़्क़ो ज़्यादा रखते हैं
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जिस ज़ख़्म की हो सकती हो तदबीर रफ़ू की
लिख दीजियो या रब उसे क़िस्मत में अदू की
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दिल से मिटना तिरी अंगुश्त-ए-हिनाई का ख़याल
हो गया गोश्त से नाख़ुन का जुदा हो जाना
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बुलबुल के कारोबार पे हैं ख़ंदा-हा-ए-गुल
कहते हैं जिस को इश्क़ ख़लल है दिमाग़ का
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मय से ग़रज़ नशात है किस रू-सियाह को
इक-गूना बे-ख़ुदी मुझे दिन रात चाहिए
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