आर्टिस्ट लोग
स्टोरीलाइन
इस कहानी में आर्टिस्ट की ज़िंदगी की पीड़ा को बयान किया गया है। जमीला और महमूद अपनी कला के वुजूद के लिए कई तरह के जतन करते हैं लेकिन कला प्रेमियों की कमी के कारण कला का संरक्षण मुश्किल महसूस होने लगता है। हालात से परेशान हो कर आर्थिक निश्चिंतता के लिए वे एक फैक्ट्री में काम करने लगते हैं, लेकिन दोनों को यह काम कलाकार के प्रतिष्ठा के अनुकूल महसूस नहीं होता इसीलिए दोनों एक दूसरे से अपनी इस मजबूरी और काम को छुपाते हैं।
जमीला को पहली बार महमूद ने बाग़-ए-जिन्ना में देखा। वो अपनी दो सहेलियों के साथ चहल क़दमी कर रही थी। सबने काले बुर्के पहने थे। मगर नक़ाबें उलटी हुई थीं। महमूद सोचने लगा। ये किस क़िस्म का पर्दा है कि बुर्क़ा ओढ़ा हुआ है, मगर चेहरा नंगा है। आख़िर इस पर्दे का मतलब क्या? महमूद जमीला के हुस्न से बहुत मुतास्सिर हुआ।
वो अपनी सहेलियों के साथ हंसती खेलती जा रही थी। महमूद उसके पीछे चलने लगा... उसको इस बात का क़तअन होश नहीं था कि वो एक ग़ैर अख़लाक़ी हरकत का मुर्तकिब हो रहा है। उसने सैंकड़ों मर्तबा जमीला को घूर घूर के देखा। इसके इलावा एक दो बार उसको अपनी आँखों से इशारे भी किए। मगर जमीला ने उसे दर-ख़ूर ऐतिना न समझा और अपनी सहेलियों के साथ बढ़ती चली गई।
उसकी सहेलियां भी काफ़ी ख़ूबसूरत थीं। मगर महमूद ने उसमें एक ऐसी कशिश पाई जो लोहे के साथ मक़्नातीस की होती है... वो उसके साथ चिमट कर रह गया।
एक जगह उसने जुर्रत से काम लेकर जमीला से कहा, “हुज़ूर अपना नक़ाब तो संभालिए, हवा में उड़ रहा है।”
जमीला ने ये सुन कर शोर मचाना शुरू कर दिया। इस पर पुलिस के दो सिपाही जो उस वक़्त बाग़ में ड्यूटी पर थे, दौड़ते आए और जमीला से पूछा, “बहन क्या बात है?”
जमीला ने महमूद की तरफ़ देखा जो सहमा खड़ा था और कहा, “ये लड़का मुझसे छेड़ख़ानी कर रहा था, जबसे मैं इस बाग़ में दाख़िल हुई हूँ, ये मेरा पीछा कर रहा है।”
सिपाहियों ने महमूद का सरसरी जायज़ा लिया और उसको गिरफ़्तार कर के हवालात में दाख़िल कर दिया... लेकिन उसकी ज़मानत हो गई।
अब मुक़द्दमा शुरू हुआ... उसकी रूएदाद में जाने की ज़रूरत नहीं। इसलिए कि ये तफ़्सील तलब है... क़िस्सा मुख़्तसर ये है कि महमूद का जुर्म साबित हो गया और उसे दो माह क़ैद बा-मुशक़्क़त की सज़ा मिल गई।
उसके वालिदैन नादार थे। इसलिए वो सेशन की अदालत में अपील न कर सके। महमूद सख़्त परेशान था कि आख़िर उसका क़ुसूर क्या है। उसको अगर एक लड़की पसंद आ गई थी और उसने उससे चंद बातें करना चाहीं तो ये क्या जुर्म है, जिसकी पादाश में वो दो माह क़ैद बा-मुशक़्क़त भुगत रहा है।
जेलख़ाने में वो कई मर्तबा बच्चों की तरह रोया... उसको मुसव्विरी का शौक़ था, लेकिन उससे वहां चक्की पिसवाई जाती थी।
अभी उसे जेल ख़ाने में आए बीस रोज़ ही हुए थे कि उसे बताया गया कि उसकी मुलाक़ात आई है... महमूद ने सोचा कि ये मुलाक़ाती कौन है? उसके वालिद तो उससे सख़्त नाराज़ थे। वालिदा अपाहिज थीं और कोई रिश्तेदार भी नहीं थे।
सिपाही उसे दरवाज़े के पास ले गया जो आहनी सलाखों का बना हुआ था। उन सलाखों के पीछे उसने देखा कि जमीला खड़ी है... वो बहुत हैरत-ज़दा हुआ। उसने समझा कि शायद किसी और को देखने आई होगी। मगर जमीला ने सलाखों के पास आकर उससे कहा, “मैं आपसे मिलने आई हूँ।”
महमूद की हैरत में और भी इज़ाफ़ा होगया, “मुझसे...”
“जी हाँ... मैं माफ़ी मांगने आई हूँ कि मैंने जल्दबाज़ी की, जिसकी वजह से आपको यहां आना पड़ा।”
महमूद मुस्कुराया, “हाय इस ज़ूद-ए-पशेमाँ का पशेमाँ होना।”
जमीला ने कहा, “ये ग़ालिब है?”
“जी हाँ, ग़ालिब के सिवा और कौन हो सकता है जो इंसान के जज़्बात की तर्जुमानी कर सके... मैंने आपको माफ़ कर दिया, लेकिन मैं यहां आपकी कोई ख़िदमत नहीं कर सकता। इसलिए कि ये मेरा घर नहीं है सरकार का है... इसके लिए मैंमाफ़ी का ख़्वास्तगार हूँ।”
“जमीला की आँखों में आँसू आ गए, “मैं आपकी ख़ादिमा हूँ।”
चंद मिनट उनके दरमियान और बातें हुईं, जो मुहब्बत के अह्द-ओ-पैमान थीं... जमीला ने उसको साबुन की एक टिकिया दी, मिठाई भी पेश की। इसके बाद वो हर पंद्रह दिन के बाद महमूद से मुलाक़ात करने के लिए आती रही। इस दौरान में इन दोनों की मुहब्बत उस्तवार होगई।
जमीला ने महमूद को एक रोज़ बताया, “मुझे मौसीक़ी सीखने का शौक़ है... आजकल मैं ख़ां साहब सलाम अली ख़ां से सबक़ ले रही हूँ।”
महमूद ने उससे कहा, “मुझे मुसव्विरी का शौक़ है, मुझे यहां जेलख़ाने में और कोई तकलीफ़ नहीं... मशक़्क़त से में घबराता नहीं। लेकिन मेरी तबीयत जिस फ़न की तरफ़ माएल है उसकी तस्कीन नहीं होती। यहां कोई रंग है न रोगन है। कोई काग़ज़ है न पैंसिल... बस चक्की पीसते रहो।”
जमीला की आँखें फिर आँसू बहाने लगीं, “बस अब थोड़े ही दिन बाक़ी रह गए हैं। आप बाहर आएं तो सब कुछ हो जाएगा।”
महमूद दो माह की क़ैद काटने के बाद बाहर आया तो जमीला दरवाज़े पर मौजूद थी... उस काले बुर्के में जो अब भूसला होगया था और जगह जगह से फटा हुआ था।
दोनों आर्टिस्ट थे। इसलिए उन्होंने फ़ैसला किया कि शादी कर लें... चुनांचे शादी होगई। जमीला के माँ-बाप कुछ असासा छोड़ गए थे, उससे उन्होंने एक छोटा सा मकान बनाया और पुर मसर्रत ज़िंदगी बसर करने लगे।
महमूद एक आर्ट स्टूडियो में जाने लगा ताकि अपनी मुसव्विरी का शौक़ पूरा करे... जमीला ख़ां साहब सलाम अली ख़ां से फिर तालीम हासिल करने लगी।
एक बरस तक वो दोनों तालीम हासिल करते रहे। महमूद मुसव्विरी सीखता रहा और जमीला मौसीक़ी। उसके बाद सारा असासा ख़त्म होगया और नौबत फ़ाक़ों पर आगई। लेकिन दोनों आर्ट शैदाई थे। वो समझते थे कि फ़ाक़े करने वाले ही सही तौर पर अपने आर्ट की मेराज तक पहुंच सकते हैं। इसलिए वो अपनी इस मुफ़लिसी के ज़माने में भी ख़ुश थे।
एक दिन जमीला ने अपने शौहर को ये मुज़्दा सुनाया कि उसे एक अमीर घराने में मौसीक़ी सिखाने की ट्युशन मिल रही है। महमूद ने ये सुन कर उससे कहा, “नहीं ट्युशन-व्युशन बकवास है... हम लोग आर्टिस्ट हैं।”
उसकी बीवी ने बड़े प्यार के साथ कहा, “लेकिन मेरी जान गुज़ारा कैसे होगा?”
महमूद ने अपने फूसड़े निकले हुए कोट का कालर बड़े अमीराना अंदाज़ में दुरुस्त करते हुए जवाब दिया, “आर्टिस्ट को इन फ़ुज़ूल बातों का ख़याल नहीं रखना चाहिए। हम आर्ट के लिए ज़िंदा रहते हैं... आर्ट हमारे लिए ज़िंदा नहीं रहता।”
जमीला ये सुन कर ख़ुश हुई, “लेकिन मेरी जान आप मुसव्विरी सीख रहे हैं... आपको हर महीने फ़ीस अदा करनी पड़ती है। उसका बंदोबस्त भी तो कुछ होना चाहिए... फिर खाना-पीना है। उसका ख़र्च अलाहिदा है।
“मैंने फ़िलहाल मुसव्विरी की तालीम लेना छोड़ दी है... जब हालात मुवाफ़िक़ होंगे तो देखा जाएगा।”
दूसरे दिन जमीला घर आई तो इसके पर्स में पंद्रह रुपये थे जो उसने अपने ख़ाविंद के हवाले कर दिए और कहा, “मैंने आज से ट्युशन शुरू कर दी है, ये पंद्रह रुपये मुझे पेशगी मिले हैं... आप मुसव्विरी का फ़न सीखने का काम जारी रखें।”
महमूद के मर्दाना जज़्बात को बड़ी ठेस लगी, “मैं नहीं चाहता कि तुम मुलाज़मत करो... मुलाज़मत मुझे करना चाहिए।”
जमीला ने ख़ास अंदाज़ में कहा, “हाय... मैं आपकी ग़ैर हूँ। मैंने अगर कहीं थोड़ी देर के लिए मुलाज़मत कर ली है तो इसमें हर्ज ही क्या है... बहुत अच्छे लोग हैं। जिस लड़की को मैं मौसीक़ी की तालीम देती हूँ, बहुत प्यारी और ज़हीन है।”
ये सुन कर महमूद ख़ामोश होगया। उसने मज़ीद गुफ़्तुगू न की।
दूसरे हफ़्ते के बाद वो पच्चीस रुपये लेकर आया और अपनी बीवी से कहा, “मैंने आज अपनी एक तस्वीर बेची है, ख़रीदार ने उसे बहुत पसंद किया। लेकिन ख़सीस था। सिर्फ़ पच्चीस रुपये दिए। अब उम्मीद है कि मेरी तस्वीरों के लिए मार्कीट चल निकलेगी।”
जमीला मुस्कुराई, “तो फिर काफ़ी अमीर आदमी हो जाऐंगे।”
महमूद ने उससे कहा, “जब मेरी तस्वीरें बिकना शुरू हो जाएंगी तो मैं तुम्हें ट्युशन नहीं करने दूँगा।”
जमीला ने अपने ख़ाविंद की टाई की गिरह दुरुस्त की और बड़े प्यार से कहा, “आप मेरे मालिक हैं जो भी हुक्म देंगे मुझे तस्लीम होगा।”
दोनों बहुत ख़ुश थे इसलिए कि वो एक दूसरे से मुहब्बत करते थे। महमूद ने जमीला से कहा, “अब तुम कुछ फ़िक्र न करो। मेरा काम चल निकला है... चार तस्वीरें कल परसों तक बिक जाएंगी और अच्छे दाम वसूल हो जाऐंगे। फिर तुम अपनी मौसीक़ी की तालीम जारी रख सकोगी।”
एक दिन जमीला जब शाम को घर आई तो इसके सर के बालों में धुन्की हुई रूई का गुबार इस तरह जमा था जैसे किसी अधेड़ उम्र आदमी की दाढ़ी में सफ़ेद बाल।
महमूद ने उससे इस्तिफ़सार किया, “ये तुमने अपने बालों की क्या हालत बना रखी है... मौसीक़ी सिखाने जाती हो या किसी जंग फ़ैक्ट्री में काम करती हो।”
जमीला ने, जो महमूद की नई रज़ाई की पुरानी रूई को धुनक रही थी मुस्कुरा कर कहा, “हम आर्टिस्ट लोग हैं। हमें किसी बात का होश भी नहीं रहता...”
महमूद ने हुक़्क़े की नय मुँह में लेकर अपनी बीवी की तरफ़ देखा और कहा, “होश वाक़ई नहीं रहता।”
जमीला ने महमूद के बालों में अपनी उंगलियों से कंघी करना शुरू की। ये धुन्की हुई रूई का गुबार आप के सर में कैसे आगया?” महमूद ने हुक्के का एक कश लगाया, “जैसा कि तुम्हारे सर में मौजूद है... हम दोनों एक ही जंग फ़ैक्ट्री में काम करते हैं सिर्फ़ आर्ट की ख़ातिर।”
- पुस्तक : باقیات منٹو
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