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अक़ील शादाब

1940

अक़ील शादाब

ग़ज़ल 17

नज़्म 1

 

अशआर 16

जो अपने आप से बढ़ कर हमारा अपना था

उसे क़रीब से देखा तो दूर का निकला

बराए-नाम सही कोई मेहरबान तो है

हमारे सर पे भी होने को आसमान तो है

मैं अपने आप को किस तरह संगसार करूँ

मिरे ख़िलाफ़ मिरा दिल अगर गवाही दे

है लफ़्ज़-ओ-मा'नी का रिश्ता ज़वाल-आमादा

ख़याल पैदा हुआ भी था कि मर भी गया

हवस का रंग चढ़ा उस पे और उतर भी गया

वो ख़ुद ही जम्अ हुआ और ख़ुद बिखर भी गया

दोहा 3

इक काँटे से दूसरा मैं ने लिया निकाल

फूलों का इस देस में कैसा पड़ा अकाल

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चादर मैली हो गई अब कैसे लौटाऊँ

अपने पिया के सामने जाते हुए शरमाऊँ

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जैसे शब्द में अर्थ है जैसे आँख में नीर

ऐसे तुझ में बसा हुआ वो महफ़िल का मीर

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पुस्तकें 2

 

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