आसिफ़ साक़िब
ग़ज़ल 9
नज़्म 1
अशआर 7
क़ैदी रिहा हुए थे पहन कर नए लिबास
हम तो क़फ़स से ओढ़ के ज़ंजीर चल पड़े
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किस दर्जा मुनाफ़िक़ हैं सब अहल-ए-हवस 'साक़िब'
अंदर से तो पत्थर हैं और लगते हैं पानी से
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दिल की मौजों की तड़प मेरी सदा में आए
दाएरे कर्ब के फैले तो हवा में आए
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लकीर खींच के मुझ पे वो फिर मुझे देखे
निगार-ओ-नक़्श में चेहरा है हू-ब-हू मेरा
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सीने के बीच 'साक़िब' ऐसा है मरना जीना
इक याद जी उठी थी इक याद मर गई है
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