जाफ़र ताहिर
ग़ज़ल 15
अशआर 9
आपस की गुफ़्तुगू में भी कटने लगी ज़बाँ
अब दोस्तों से तर्क-ए-मुलाक़ात चाहिए
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उट्ठी थी पहली बार जिधर चश्म-ए-आरज़ू
वो लोग फिर मिले न वो बस्ती नज़र पड़ी
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नाज़ हर बुत के उठा पाए न 'जाफ़र-ताहिर'
चूम कर छोड़ दिए हम ने ये भारी पत्थर
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