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उबैदुल्लह सिद्दीक़ी

उबैदुल्लह सिद्दीक़ी

ग़ज़ल 3

 

अशआर 6

ज़िंदगी इक ख़्वाब है ये ख़्वाब की ताबीर है

हल्क़ा-ए-गेसू-ए-दुनिया पाँव की ज़ंजीर है

पहले चिंगारी से इक शोला बनाता है मुझे

फिर वही तेज़ हवाओं से डराता है मुझे

ये आँखें ये दिमाग़ ये ज़ख़्मों का घर बदन

सब महव-ए-ख़्वाब हैं दिल-ए-बे-ताब के सिवा

ये किस का चेहरा दमकता है मेरी आँखों में

ये किस की याद मुझे कहकशाँ से आती है

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शाम होती है तो मेरा ही फ़साना अक्सर

वो जो टूटा हुआ तारा है सुनाता है मुझे

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