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ताहिर अज़ीम

1978 | बहरैन

ताहिर अज़ीम

ग़ज़ल 21

नज़्म 1

 

अशआर 14

जो बहुत बे-क़रार रखते थे

हाँ वही तो क़रार के दिन थे

तीरगी की क्या अजब तरकीब है ये

अब हवा के दोश पर दीवा रखा है

मैं तिरे हिज्र की गिरफ़्त में हूँ

एक सहरा है मुब्तला मुझ में

ये जो माज़ी की बात करते हैं

सोचते होंगे हाल से आगे

रहता है ज़ेहन दिल में जो एहसास की तरह

उस का कोई पता भी ज़रूरी नहीं कि हो

पुस्तकें 1

 

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