ताहिर अज़ीम
ग़ज़ल 21
नज़्म 1
अशआर 14
जो बहुत बे-क़रार रखते थे
हाँ वही तो क़रार के दिन थे
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तीरगी की क्या अजब तरकीब है ये
अब हवा के दोश पर दीवा रखा है
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मैं तिरे हिज्र की गिरफ़्त में हूँ
एक सहरा है मुब्तला मुझ में
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ये जो माज़ी की बात करते हैं
सोचते होंगे हाल से आगे
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रहता है ज़ेहन ओ दिल में जो एहसास की तरह
उस का कोई पता भी ज़रूरी नहीं कि हो
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