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अरहर का खेत

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    देहात में अरहर के खेत को वही अहमियत हासिल है जो हाईड पार्क को लंदन में है। देहात और देहातियों के सारे मंसबी फ़राइज़। फ़ित्री हवाइज और दूसरे हवादिस यहीं पेश आते हैं। हाईड पार्क की ख़ुश फ़े'लियाँ आर्ट या उसकी उ'र्यानियों पर ख़त्म हो जाती हैं, अरहर के खेत की ख़ुश फ़े'लियाँ अक्सर वाटर लू पर तमाम होती हैं। यूरोप की औरतों को हुक़ूक़ तलबी का ख़्याल बहुत बाद में पैदा हुआ लेकिन अरहर खेत में कितनी गांव वालियाँ मिसेज़ पंखरसेट से पहले ये मुहिम सर कर चुकी हैं। ये देहातों की असैंबली है जहां औरतों और बच्चों को गांव की इंतिज़ामी हुकूमत में इतना ही दख़ल होता है जितना हिंदुस्तानियों को असैंबली या कौंसिल में। दोनों बोलते हैं, ज़िद करते हैं, झगड़ते हैं, रोते बिसूरते हैं और अपने अपने घर का रास्ता लेते हैं। देहाती औरतें और बच्चे कुछ और मुफ़ीद काम कर जाते हैं जिनसे उनको और खेत दोनों को फ़ायदा पहुंचता है, अर्कान-ए-हुकूमत वो करते हैं जिससे वो ख़ुद फ़ायदा उठाते हैं, दूसरे नुक़्सान।

    शाम का धुंदलका और गांव का धुआँ फैलने लगता है। कुत्ते भौंकने लगते हैं। किसान और उनके थके हुए मवेशी एक दूसरे से सरगोशी करते हुए दहात को वापिस होते हैं। दोनों के ज़ेह्न में एक ही बात है, या'नी घर पहुंच कर खाना मिलेगा। सोने को मिलेगा और आ'फ़ियत मिलेगी। मवेशी और मालिक दोनों का ख़ानदान एक ही होता है। किसान की बीवी उसके बच्चे बच्चियां और उसका बोसीदा झोंपड़ा किसान के लिए इतने ही अ'ज़ीज़ और कार आमद होते हैं जितने ख़ुद मवेशी के लिए किसान और मवेशी दोनों एक दूसरे पर ए'तिमाद करते हैं इसलिए ज़िंदगी की तकालीफ़ को ख़ातिर में नहीं लाते। किसान कितना ही फ़लाकतज़दा क्यों हो रोशन ख़्याल मियां बीवियों से ज़्यादा जरी और पुर-उम्मीद रहता है।

    गांव के क़रीब कुँएँ के सामने से एक रास्ता खेत की सिम्त गया है, एक तरफ़ गढ़ा है जिसमें खाद जमा है, दूसरी तरफ़ बबूल का पुराना खोखला दरख़्त है जैसे कोई कुहनसाल-ओ-तमग़ा याफ़्ता फ़ौजी जिस पर दो एक शब बेदार बुज़ुर्ग इस तौर से बैठे हुए गर्दो पेश का जायज़ा लेते होते हैं जैसे पहली जंग-ए-अ'ज़ीम के इख्तिताम पर यूरोप के सूरमा शाख़-ए-ज़रीं पर बैठे हुए गर्द-ओ-पेश और नज़दीक-ओ-दूर क़ब्ज़ा जमाने की फ़िक्र में हों। औरतों की कुछ ता'दाद जमा हुई, थोड़ी देर तक मज़ीद कुमक का इंतिज़ार किया गया। उनमें जो जवान थीं कुँएँ की जगत पर थीं पांव लटकाते हुए गुनगुनाती हँसती बूढ़ियों को ब्रहमी-ओ-बेज़ारी की दा'वत देती हुई कुछ बुढ़ियाँ थीं जो जगत के नीचे बैठी कराह रही थीं। कभी गालियां देतीं कभी खांसने लगतीं। एक टोली और पहुंची और सब एक दूसरे के पीछे चलने लगीं। जिस्म को तौलते हुए नौजवान लड़खड़ातीं तो एक हल्की सी चीख़ और बुलंद क़हक़हा के साथ सँभल जातीं। बूढ़ियों का क़दम डगमगाता तो ज़मींदार, वो किसान जिसका खेत हाशिया पर होता मौसम, पास के लड़का-लड़की या ख़ुश-ख़िराम नौजवान औरतों को गालियां देने लगता। चलते चलते क़ाफ़िला एक तारीक नाक़ाबिल उ'बूर फ़ैसल के सामने रुक गया। ये देहाती बेल्जियम के क़िले थे।

    नाज़रीन समझ गए होंगे कि ये लश्कर किस मुहिम पर रवाना हुआ था। यहां वो सब कुछ होगा जिसके लिए हम चूर्ण या मार खाते हैं। यहीं से शायरी का इख्तिताम और ता'ज़ीरात-ए-हिंद का आग़ाज़ होता है और हिफ़्ज़ान-ए-सेहत के तरह तरह के जरासीम का इन्किशाफ़ होता है। कुछ मनचले या मज़लूम पहले से पहुंच चुके हैं और किसी से वा'दा-ए-दीद के मज़ीद का क़ौल-ओ-क़रार है, वो सरापा शौक़ चला रहा है और... किसी का गधा खो गया है वो भी भटकता हुआ पहुंचा है। ये अरहर के खेत का करिश्मा है कि बिछड़े यहां ज़रूर मिलते हैं। ये और बात है कि कभी गधे वाले का हाथ उश्शाक की गर्दन पर होता है या ख़ुद गधा किसी महबूब के पहलू में। कभी यूरोप में मास्को रेड (जश्न-ए-नक़ाब पोशी) मनाया जाता था। हिन्दोस्तान में इसका समां अक्सर अरहर के खेत में नज़र जाता है!

    जवानी खोने के हिन्दोस्तान में दो बड़े जाने-पहचाने मुक़ाम थे, शहर की गलियाँ और अरहर के खेत! अब उनमें यूनीवर्सिटीयों और कारख़ानों का भी इज़ाफ़ा कर लिया गया है। यहां के भटके या रांदा-ओ-दरमांदा तो शिफ़ाख़ाने पहुंचते हैं या जेलख़ाने! हस्पताल से ज़िंदगी और जेलख़ाने से मौत घबराती है। शबाब और मुफ़लिसी का इज्तिमा इतना ही बे-कैफ़ है जितना बे मिर्चों का सालन या बे तंबाकू का पान। माना कि मिर्च और तंबाकू सेहत के लिए मुज़िर हैं। लेकिन तंदरुस्ती का मसरफ़ तंदरुस्ती को हर क़ीमत पर क़ायम रखना ही नहीं है, इससे लुतफ़ उठाना भी है, शबाब में बुढ़ापे का लफ़स, अगर उसे लुतफ़ कह सकते हैं, उठाना मुम्किन है लेकिन बुढ़ापे में शबाब का कैफ़ कैसे पैदा किया जा सकता है। शबाब और पीरी दोनों हालात मुनतज़रा हैं। एक का मक़सूद इंतिज़ार दुश्मनाँन-ए-ईमान-ओ-आगही या रहज़न-ए-तमकीन-ओ-होश है और हमेशा अ'क़्ल से शर्मसार होने पर इसरार है। दूसरी तरफ़ पीरी है जो अ'क़्ल ही नहीं हर हवास से शर्मसार रहती है!

    अरहर के खेत में अ'क़्ल से शर्मसारी की नौबत आती है तो गांव वाले बसोले से काम लेते हैं और अ'दालत रन्दे से ख़बर लेती है। किसी मनचले शहरी का अरहर के खेत में देहातियों के हाथ से मार खाना इतना ही दिलचस्प मंज़र है जितना किसी पब्लिक मुशायरे में भले मानुस शायर का अपना कलाम सुनाना।

    किसान समझता है कि जब तक ज़मींदार और पटवारी मौजूद हैं उसकी सारी मिल्कियत मनक़ूला है, इला औरत, शहरी उसका क़ाइल है कि जब तक यूरोप और दौलत की कारफ़रमाई है उस वक़्त तक सब कुछ ग़ैर मनक़ूला है लेकिन औरत देहात का आदमी, औरत को माय-ए-इज़्ज़त समझता है, शहरी वसीला-ए-तफ़रीह देहाती के नज़दीक औरत का तसव्वुर ये है कि वो उसका मकान है जहां वो हँसता है, बोलता है, आराम करता है, पनाह लेता है और फ़िशार-ए-हयात से ओ'ह्दा बर होने के लिए ताज़ा दम हो कर निकलता है। ता'लीम याफ़्ता के नज़दीक औरत एक जिन्सी तक़ाज़ा है या एक वसीला तफ़न्नुन जिसके लिए उसने चौपाटी और अपालो ता'मीर कर लिया है। किसान पनाह और आराम चाहता है, शहरी अय्याशी-ओ-हवसनाकी के दरपे रहता है। गांव में मेहनत, दयानत और औरत है। शहरी औरत का तालिब रहता है लेकिन मुहब्बत के लिए नहीं लज़्ज़त के लिए!

    अरहर का खेत देहात की ज़नाना पार्लीमैंट है। कौंसिल और असैंबली का तसव्वुर यहीं से लिया गया है, गांव का छोटा बड़ा वाक़िया यहां मा'रिज़-ए-बहस में आता है। फ़ुलां की शादी कब और कहाँ हो रही है। दारोगा जी क्यों आए और क्या लेकर गए। पटवारी की बीवी ने इस साल कौन से नए ज़ेवर बनवाए। रुक्मीना के बच्चे क्यों नहीं पैदा होते और सुखिया के हमल कैसे ठैरा। एक ने कहा मेरी गाय के बछिया होगी। दूसरी बोली पहलौठी की बछिया हो चुकी है अब के बछवा होगा। इस पर इख़तिलाफ़ आरा हुआ और हमारे लीडरों की तरह दोनों भूल गईं कि दरअसल किस शुग़्ल में मसरूफ़ थीं और अब क्या हो रहा था। एक ग़ौग़ा बुलंद हुआ। भगदड़ मच गई। खेत के चारों तरफ़ से मर्द औरत बच्चे, गीदड़, कुत्ते, लोमड़ी, बिन बिलाओ निकलने भागने लगे, जैसे असैंबली में बम गिरा हो।

    एक रोज़ मुक़र्ररा वक़्त से निस्फ़ घंटा पहले क्लास पहुंच गया। मुअ'ल्लिम की हैसियत से क्लास में तन्हा पाया जाना पाने वालों के लिए बड़ी दिलचस्पी का मूजिब होता है। जैसे किसी ग़ैर मुतवक़्क़े मुक़ाम पर किसी नादिर-उल-वजूद जानवर का ढांचा मिल जाना। ऐसी सूरत में हर उस गुज़र जानेवाले को मुख़ातिब करना और उससे इज़हार बरतरी करना ज़रूरी हो जाता है जिसके मुता'ल्लिक़ ये अंदेशा हो कि ये हमारी हैत कज़ाई पर सोचने का अह्ल है। इस अस्ना में एक कुत्ता सामने से गुज़रा और हमने इस तरह से ललकारा और आमादा-ए-नुक़्स अमन हुए गोया उर्दू पढ़ाने के इ'लावा यूनीवर्सिटी ने हमको कुत्तों के दफ़ईया के लिए थानेदार बना दिया था। फिर एक भिश्ती सामने गया। हमने इंतिहाई सरपरस्ताना लहजे में पूछा क्यों, इस तरफ़ का दरवाज़ा खुल जाने से तुम लोगों को आने-जाने में बड़ी आसानी हो गई होगी? उसने निहायत इन्किसार और मुतशक्किराना अंदाज़ में हामी भरी। अभी ये तकल्लुफ़ात ख़त्म नहीं हुए थे कि एक ख्वांचा वाला दिखाई दिया। बोला, मियां इस दरवाज़े की कुंजी आप ही के पास रहती है।

    दरवाज़ा खुलने से बड़ा आराम हो गया। (ख्वांचा के अंदर जो सर पर रखा हुआ था कुछ टटोलते हुए) ख़ुदा आपको सलामत रखे ये लीजिए बरेली का बड़ा तोहफ़ा अमरूद है। अब समझ में आया कि यूनीवर्सिटी ने मुअ'ल्लिमीन के लिए किस मस्लिहत की बिना पर गाउन पहनना ज़रूरी क़रार दिया है। इतने में एक तरफ़ से हाजी ब्लग़-उल-अ'ला इस तौर पर झपटते हुए निकले गोया कमली और दाढ़ी के इ'लावा,

    आलम तमाम हल्का-ए-दाम ख़्याल है

    हाजी साहिब का अरबी नाम ब्लग़-उल-अ'ला और फ़ारसी जरीब ज़ैतूनी: है, कुछ लोग साबिक़ दीवाना हमदर्द हाल अबुल वल जुनून कहते हैं, कुछ दोनों। ख़िश्त अलनपरायह, पर ज़ोर लगाते हुए इन दिनों क़ानून-ए-मसऊ'दी का तर्जुमा कर रहे हैं।

    मिलते ही फ़रमाने लगे, जल्दी सुनाओ जल्दी। मैंने कहा, क्या? फ़रमाया, कोई अच्छा सा शे'र। मैंने कहा, मसलन:

    वो तरी गली की क़यामतें कि लह्द से मुर्दे निकल पड़े

    ये मरी जबीन-ए-नियाज़ थी कि जहां धरी थी धरी रही!

    गर्दन हिला कर बजल्वा रेज़ई कमलीव पुर फ़शान-ए-रेश-ए-सुकूत-ए-सुख़न-शिनास का इज़हार किया, मैंने कहा कोई मौज़ू बताईए तो मज़मून लिखूँ, फ़रमाया,

    अरहर का खेत,

    दर्याफ़्त किया क्यों जनाब! इस शे'र का ये मुआवज़ा, सुख़न-फ़ह्मी की दाद देता हूँ, कमली को हाजी साहिब ने जनाब किरामन, के सर से उठा कर कातबीन पर डाल दिया (मैंने सहूलत की ख़ातिर इन तस्मा पा बुज़ुर्गों के नाम अलैहिदा कर दिए हैं) अगर कोई साहिब उनके नाम-ओ-निशान, हसब नसब, वतन और मशाग़ल की बाबत अपना ज़ख़ीरा-ए-मा'लूमात वसीअ' करना चाहते हों तो नियाज़ साहिब से रुजू करें। उम्मीद है कि नियाज़ साहिब बाब-अल-इस्तफ़सार के जिन नंबर में इस पर इज़हार-ए-ख़याल फ़रमाएँगे। फ़रमाया नवाब साहिब कहाँ मिलेंगे। मैंने कहा नवाब मुज़म्मिल अल्लाह ख़ां साहिब को ये शे'र सुनाइयेगा। कहने लगे नहीं जी वाइस चांसलर साहिब, नवाब मसऊ'द यार जंग साहिब बहादुर, मैंने कहा उनको सुनाना है तो फिर ये सुनाइयेगा,

    तिरा कि ज़ोर बाज़ुए तेग़ ज़न बा क़ीस्त

    बगीर तेग़ कि आँ हसरत कुहन बा क़ीस्त

    फ़रमाया ये क्या, मैंने कहा इसलिए कि

    मन आँ इ'ल्म-ओ-हुनर रा बापर का है नमी गीरम

    कि अज़ तेग़-ओ-सिपर बेगाना साज़ो मर्द-ए-ग़ाज़ी रा!

    हाजी साहिब क़िबला ने कुछ उकता कर, कुछ बे-इख़्तियार हो कर फ़रमाया, अरे मियां ये सब तो हुआ। क्लास में बैठ कर तुम्हारा लेक्चर सुनूँगा। मैंने कहा और क्लास की डिसिप्लिन का कौन ज़िम्मेदार होगा। फ़रमाया, अस्सलामु अ'लैकुम!

    स्रोत:

    Mazamin-e-Rasheed (Pg. 107)

    • लेखक: रशीद अहमद सिद्दीक़ी
      • प्रकाशक: अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द), देहली
      • प्रकाशन वर्ष: 1986

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