अदीम हाशमी के शेर
बिछड़ के तुझ से न देखा गया किसी का मिलाप
उड़ा दिए हैं परिंदे शजर पे बैठे हुए
इक खिलौना टूट जाएगा नया मिल जाएगा
मैं नहीं तो कोई तुझ को दूसरा मिल जाएगा
मिरे हमराह गरचे दूर तक लोगों की रौनक़ है
मगर जैसे कोई कम है कभी मिलने चले आओ
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परिंदा जानिब-ए-दाना हमेशा उड़ के आता है
परिंदे की तरफ़ उड़ कर कभी दाना नहीं आता
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कटी हुई है ज़मीं कोह से समुंदर तक
मिला है घाव ये दरिया को रास्ता दे कर
वो जो तर्क-ए-रब्त का अहद था कहीं टूटने तो नहीं लगा
तिरे दिल के दर्द को देख कर मिरे दिल में दर्द है किस लिए
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जो मह ओ साल गुज़ारे हैं बिछड़ कर हम ने
वो मह ओ साल अगर साथ गुज़ारे होते
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माह अच्छा है बहुत ही न ये साल अच्छा है
फिर भी हर एक से कहता हूँ कि हाल अच्छा है
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सदाएँ एक सी यकसानियत में डूब जाती हैं
ज़रा सा मुख़्तलिफ़ जिस ने पुकारा याद रहता है
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हुआ है जो सदा उस को नसीबों का लिखा समझा
'अदीम' अपने किए पर मुझ को पछताना नहीं आता
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बड़ा वीरान मौसम है कभी मिलने चले आओ
हर इक जानिब तिरा ग़म है कभी मिलने चले आओ
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वो कि ख़ुशबू की तरह फैला था मेरे चार-सू
मैं उसे महसूस कर सकता था छू सकता न था
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याद कर के और भी तकलीफ़ होती थी 'अदीम'
भूल जाने के सिवा अब कोई भी चारा न था
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टैग : याद
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मैं दरिया हूँ मगर बहता हूँ मैं कोहसार की जानिब
मुझे दुनिया की पस्ती में उतर जाना नहीं आता
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फ़ासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था
सामने बैठा था मेरे और वो मेरा न था
हम बहर हाल दिल ओ जाँ से तुम्हारे होते
तुम भी इक-आध घड़ी काश हमारे होते
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शोर सा एक हर इक सम्त बपा लगता है
वो ख़मोशी है कि लम्हा भी सदा लगता है
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टैग : ख़ामोशी
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क्यूँ परखते हो सवालों से जवाबों को 'अदीम'
होंट अच्छे हों तो समझो कि सवाल अच्छा है
बिकता तो नहीं हूँ न मिरे दाम बहुत हैं
रस्ते में पड़ा हूँ कि उठा कोई आ कर
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