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Anwar Shuoor's Photo'

अग्रणी पाकिस्तानी शायरों में से एक, एक अख़बार में रोज़ाना सामयिक विषयों पर 'क़िता' लिखते हैं।

अग्रणी पाकिस्तानी शायरों में से एक, एक अख़बार में रोज़ाना सामयिक विषयों पर 'क़िता' लिखते हैं।

अनवर शऊर के शेर

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बहुत इरादा किया कोई काम करने का

मगर अमल हुआ उलझनें ही ऐसी थीं

फ़रिश्तों से भी अच्छा मैं बुरा होने से पहले था

वो मुझ से इंतिहाई ख़ुश ख़फ़ा होने से पहले था

इस तअल्लुक़ में नहीं मुमकिन तलाक़

ये मोहब्बत है कोई शादी नहीं

लोग सदमों से मर नहीं जाते

सामने की मिसाल है मेरी

गो कठिन है तय करना उम्र का सफ़र तन्हा

लौट कर देखूँगा चल पड़ा अगर तन्हा

ज़िंदगी की ज़रूरतों का यहाँ

हसरतों में शुमार होता है

किस क़दर बद-नामियाँ हैं मेरे साथ

क्या बताऊँ किस क़दर तन्हा हूँ मैं

सामने कर वो क्या रहने लगा

घर का दरवाज़ा खुला रहने लगा

ज़माने के झमेलों से मुझे क्या

मिरी जाँ! मैं तुम्हारा आदमी हूँ

कोई ज़ंजीर नहीं तार-ए-नज़र से मज़बूत

हम ने इस चाँद पे डाली है कमंद आँखों से

आदमी के लिए रोना है बड़ी बात 'शुऊर'

हँस तो सकते हैं सब इंसान हँसी में क्या है

हमेशा हाथों में होते हैं फूल उन के लिए

किसी को भेज के मंगवाने थोड़ी होते हैं

जो कुछ कहो क़ुबूल है तकरार क्या करूँ

शर्मिंदा अब तुम्हें सर-ए-बाज़ार क्या करूँ

दीवार-ए-ज़िंदाँ के पीछे

जुर्म-ए-मोहब्बत में बैठा हूँ

अच्छा ख़ासा बैठे बैठे गुम हो जाता हूँ

अब मैं अक्सर मैं नहीं रहता तुम हो जाता हूँ

हैं पत्थरों की ज़द पे तुम्हारी गली में हम

क्या आए थे यहाँ इसी बरसात के लिए

मरने वाला ख़ुद रूठा था

या नाराज़ हयात हुई थी

मेरे घर के तमाम दरवाज़े

तुम से करते हैं प्यार जाओ

रहे तज़्किरे अम्न के आश्ती के

मगर बस्तियों पर बरसते रहे बम

बुरा बुरे के अलावा भला भी होता है

हर आदमी में कोई दूसरा भी होता है

किसी ग़रीब को ज़ख़्मी करें कि क़त्ल करें

निगाह-ए-नाज़ पे जुर्माने थोड़ी होते हैं

'शुऊर' तुम ने ख़ुदा जाने क्या किया होगा

ज़रा सी बात के अफ़्साने थोड़ी होते हैं

था व'अदा शाम का मगर आए वो रात को

मैं भी किवाड़ खोलने फ़ौरन नहीं गया

जनाब के रुख़-ए-रौशन की दीद हो जाती

तो हम सियाह-नसीबों की ईद हो जाती

मुस्कुराए बग़ैर भी वो होंट

नज़र आते हैं मुस्कुराए हुए

किया बादलों में सफ़र ज़िंदगी भर

ज़मीं पर बनाया घर ज़िंदगी भर

लगी रहती है अश्कों की झड़ी गर्मी हो सर्दी हो

नहीं रुकती कभी बरसात जब से तुम नहीं आए

मुस्कुरा कर देख लेते हो मुझे

इस तरह क्या हक़ अदा हो जाएगा

अच्छों को तो सब ही चाहते हैं

है कोई कि मैं बहुत बुरा हूँ

इत्तिफ़ाक़ अपनी जगह ख़ुश-क़िस्मती अपनी जगह

ख़ुद बनाता है जहाँ में आदमी अपनी जगह

काफ़ी नहीं ख़ुतूत किसी बात के लिए

तशरीफ़ लाइएगा मुलाक़ात के लिए

निज़ाम-ए-ज़र में किसी और काम का क्या हो

बस आदमी है कमाने का और खाने का

इश्क़ तो हर शख़्स करता है 'शुऊर'

तुम ने अपना हाल ये क्या कर लिया

हम बुलाते वो तशरीफ़ लाते रहे

ख़्वाब में ये करामात होती रही

वो रंग रंग के छींटे पड़े कि उस के ब'अद

कभी फिर नए कपड़े पहन के निकला मैं

सच है उम्र भर किस का कौन साथ देता है

ग़म भी हो गया रुख़्सत दिल को छोड़ कर तन्हा

तेरी आस पे जीता था मैं वो भी ख़त्म हुई

अब दुनिया में कौन है मेरा कोई नहीं मेरा

सभी ज़िंदगी के मज़े लूटते हैं

आया हमें ये हुनर ज़िंदगी भर

कह तो सकता हूँ मगर मजबूर कर सकता नहीं

इख़्तियार अपनी जगह है बेबसी अपनी जगह

आदमी बन के मिरा आदमियों में रहना

एक अलग वज़्अ है दरवेशी सुल्तानी से

कभी रोता था उस को याद कर के

अब अक्सर बे-सबब रोने लगा हूँ

'शुऊर' सिर्फ़ इरादे से कुछ नहीं होता

अमल है शर्त इरादे सभी के होते हैं

ख़्वाह दिल से मुझे चाहे वो

ज़ाहिरी वज़्अ' तो निबाहे वो

हो गए दिन जिन्हें भुलाए हुए

आज कल हैं वो याद आए हुए

'शुऊर' ख़ुद को ज़हीन आदमी समझते हैं

ये सादगी है तो वल्लाह इंतिहा की है

मिरी हयात है बस रात के अँधेरे तक

मुझे हवा से बचाए रखो सवेरे तक

कहाँ है शैख़ को सुध-बुध मज़ीद पीने की

नशा उतार गए तीन चार जाम उस का

ज़बान-ए-दिल से कोई शाइ'री सुनाता है

तो सामईन भुलाते नहीं कलाम उस का

वो मुझ से रूठ जाती तो और क्या करती

मिरी ख़ताएँ मिरी लग़्ज़िशें ही ऐसी थीं

मोहब्बत रही चार दिन ज़िंदगी में

रहा चार दिन का असर ज़िंदगी भर

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