आरज़ू सहारनपुरी के शेर
गो सरापा-ए-जब्र हैं फिर भी
साहिब-ए-इख़्तियार हैं हम लोग
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कभी कभी तो इक ऐसा मक़ाम आया है
मैं हुस्न बन के ख़ुद अपनी नज़र से गुज़रा हूँ
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महसूस कर रहा हूँ ख़ुद अपने जमाल को
जितना तिरे क़रीब चला जा रहा हूँ मैं
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भूल के कभी न फ़ाश कर राज़-ओ-नियाज़-ए-आशिक़ी
वो भी अगर हों सामने आँख उठा के भी न देख
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