अज़ीज़ बानो दाराब वफ़ा के शेर
मैं जब भी उस की उदासी से ऊब जाऊँगी
तो यूँ हँसेगा कि मुझ को उदास कर देगा
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शहर ख़्वाबों का सुलगता रहा और शहर के लोग
बे-ख़बर सोए हुए अपने मकानों में मिले
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वरक़ उलट दिया करता है बे-ख़याली में
वो शख़्स जब मिरा चेहरा किताब होता है
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मिरे अंदर ढंडोरा पीटता है कोई रह रह के
जो अपनी ख़ैरियत चाहे वो बस्ती से निकल जाए
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ज़मीन मोम की होती है मेरे क़दमों में
मिरा शरीक-ए-सफ़र आफ़्ताब होता है
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मैं उस के सामने उर्यां लगूँगी दुनिया को
वो मेरे जिस्म को मेरा लिबास कर देगा
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वो मिरा साया मिरे पीछे लगा कर खो गया
जब कभी देखा है उस ने भीड़ में शामिल मुझे
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कहने वाला ख़ुद तो सर तकिए पे रख कर सो गया
मेरी बे-चारी कहानी रात भर रोती रही
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जब किसी रात कभी बैठ के मय-ख़ाने में
ख़ुद को बाँटेगा तो देगा मिरा हिस्सा मुझ को
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गए मौसम में मैं ने क्यूँ न काटी फ़स्ल ख़्वाबों की
मैं अब जागी हूँ जब फल खो चुके हैं ज़ाइक़ा अपना
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आईना-ख़ाने में खींचे लिए जाता है मुझे
कौन मेरी ही अदालत में बुलाता है मुझे
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ये हौसला भी किसी रोज़ कर के देखूँगी
अगर मैं ज़ख़्म हूँ उस का तो भर के देखूँगी
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मेरे हालात ने यूँ कर दिया पत्थर मुझ को
देखने वालों ने देखा भी न छू कर मुझ को
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इस घर के चप्पे चप्पे पर छाप है रहने वाले की
मेरे जिस्म में मुझ से पहले शायद कोई रहता था
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वफ़ा के नाम पर पैरा किए कच्चे घड़े ले कर
डुबोया ज़िंदगी को दास्ताँ-दर-दास्ताँ हम ने
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टैग : वफ़ा
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कुरेदता है बहुत राख मेरे माज़ी की
मैं चूक जाऊँ तो वो उँगलियाँ जला लेगा
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टैग : माज़ी
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मेरी ख़ल्वत में जहाँ गर्द जमी पाई गई
उँगलियों से तिरी तस्वीर बनी पाई गई
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चराग़ बन के जली थी मैं जिस की महफ़िल में
उसे रुला तो गया कम से कम धुआँ मेरा
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इक वही खोल सका सातवाँ दर मुझ पे मगर
एक शब भूल गया फेरना जादू वो भी
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मेरे अंदर एक दस्तक सी कहीं होती रही
ज़िंदगी ओढ़े हुए मैं बे-ख़बर सोती रही
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हम मता-ए-दिल-ओ-जाँ ले के भला क्या जाएँ
ऐसी बस्ती में जहाँ कोई लुटेरा भी नहीं
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हम ने सारा जीवन बाँटी प्यार की दौलत लोगों में
हम ही सारा जीवन तरसे प्यार की पाई पाई को
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हम ऐसे सूरमा हैं लड़ के जब हालात से पलटे
तो बढ़ के ज़िंदगी ने पेश कीं बैसाखियाँ हम को
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मैं किस ज़बान में उस को कहाँ तलाश करूँ
जो मेरी गूँज का लफ़्ज़ों से तर्जुमा कर दे
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तमाम उम्र किसी और नाम से मुझ को
पुकारता रहा इक अजनबी ज़बान में वो
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ज़िंदगी भर मैं खुली छत पे खड़ी भीगा की
सिर्फ़ इक लम्हा बरसता रहा सावन बन के
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एक मुद्दत से ख़यालों में बसा है जो शख़्स
ग़ौर करते हैं तो उस का कोई चेहरा भी नहीं
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चमन पे बस न चला वर्ना ये चमन वाले
हवाएँ बेचते नीलाम रंग-ओ-बू करते
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बिछड़ के भीड़ में ख़ुद से हवासों का वो आलम था
कि मुँह खोले हुए तकती रहीं परछाइयाँ हम को
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पकड़ने वाले हैं सब ख़ेमे आग और बेहोश
पड़े हैं क़ाफ़िला-सालार मिशअलों के क़रीब
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सुनने वाले मिरा क़िस्सा तुझे क्या लगता है
चोर दरवाज़ा कहानी का खुला लगता है
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बुझा के रख गया है कौन मुझ को ताक़-ए-निस्याँ पर
मुझे अंदर से फूंके दे रही है रौशनी मेरी
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अपनी हस्ती का कुछ एहसास तो हो जाए मुझे
और नहीं कुछ तो कोई मार ही डाले मुझ को
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हमारी बेबसी शहरों की दीवारों पे चिपकी है
हमें ढूँडेगी कल दुनिया पुराने इश्तिहारों में
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मिरे अंदर से यूँ फेंकी किसी ने रौशनी मुझ पर
कि पल भर में मिरी सारी हक़ीक़त खुल गई मुझ पर
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कोई मौसम मेरी उम्मीदों को रास आया नहीं
फ़स्ल अँधियारों की काटी और दिए बोती रही
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मैं अपने जिस्म में रहती हूँ इस तकल्लुफ़ से
कि जैसे और किसी दूसरे के घर में हूँ
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मुझे कहाँ मिरे अंदर से वो निकालेगा
पराई आग में कोई न हाथ डालेगा
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मैं शाख़-ए-सब्ज़ हूँ मुझ को उतार काग़ज़ पर
मिरी तमाम बहारों को बे-ख़िज़ाँ कर दे
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अब भी खड़ी है सोच में डूबी उजयालों का दान लिए
आज भी रेखा पार है रावण सीता को समझाए कौन
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ज़र्द चेहरों की किताबें भी हैं कितनी मक़्बूल
तर्जुमे उन के जहाँ भर की ज़बानों में मिले
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फ़साना-दर-फ़साना फिर रही है ज़िंदगी जब से
किसी ने लिख दिया है ताक़-ए-निस्याँ पर पता अपना
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मेरी तस्वीर बनाने को जो हाथ उठता है
इक शिकन और मिरे माथे पे बना देता है
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मैं ने ये सोच के बोए नहीं ख़्वाबों के दरख़्त
कौन जंगल में उगे पेड़ को पानी देगा
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मैं भी साहिल की तरह टूट के बह जाती हूँ
जब सदा दे के बुलाता है समुंदर मुझ को
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वो ये कह कह के जलाता था हमेशा मुझ को
और ढूँडेगा कहीं मेरे अलावा मुझ को
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मैं उस की धूप हूँ जो मेरा आफ़्ताब नहीं
ये बात ख़ुद पे मैं किस तरह आश्कार करूँ
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किसी जनम में जो मेरा निशाँ मिला था उसे
पता नहीं कि वो कब उस निशान तक पहुँचा
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धूप मेरी सारी रंगीनी उड़ा ले जाएगी
शाम तक मैं दास्ताँ से वाक़िआ हो जाऊँगी
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टटोलता हुआ कुछ जिस्म ओ जान तक पहुँचा
वो आदमी जो मिरी दास्तान तक पहुँचा
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