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अज़ीज़ क़ैसी

1931 - 1992 | मुंबई, भारत

प्रमुखतम प्रगतीशील शायरों में शामिल / अपनी भावनात्मक तीक्षणता के लिए विख्यात

प्रमुखतम प्रगतीशील शायरों में शामिल / अपनी भावनात्मक तीक्षणता के लिए विख्यात

अज़ीज़ क़ैसी के शेर

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आह-ए-बे-असर निकली नाला ना-रसा निकला

इक ख़ुदा पे तकिया था वो भी आप का निकला

दिलों का ख़ूँ करो सालिम रखो गरेबाँ को

जुनूँ की रस्म ज़माना हुआ उठा दी है

क्या हाथ उठाइए दुआ को

हम हाथ उठा चुके दुआ से

कई बार दौर-ए-कसाद में गिरे मेहर-ओ-माह के दाम भी

मगर एक क़ीमत-ए-जिंस-ए-दिल जो खरी रही तो खरी रही

चल 'क़ैसी' मेले में चल क्या रोना तन्हाई का

कोई नहीं जब तेरा मेरा सब मेरे सब तेरे

इक नवा-ए-रफ़्ता की बाज़गश्त थी 'क़ैसी'

दिल जिसे समझते थे दश्त-ए-बे-सदा निकला

ये रास रंग ये मेल मिलन इक हाथ में चाँद इक में सूरज

इक रात का मौज मज़ा सारा इक दिन का सैर-सपाटा है

जो ज़ख़्म दोस्तों ने दिए हैं वो छुप तो जाएँ

पर दुश्मनों की सम्त से पत्थर कोई तो आए

जितने थे रंग हुस्न-ए-बयाँ के बिगड़ गए

लफ़्ज़ों के बाग़ शहर की सूरत उजड़ गए

अजीब शहर है घर भी हैं रास्तों की तरह

किसे नसीब है रातों को छुप के रोना भी

नज़र उठाओ तो झूम जाएँ नज़र झुकाओ तो डगमगाएँ

तुम्हारी नज़रों से सीखते हैं तरीक़ मौत-ओ-हयात के हम

तुझे सीने से लगा लूँ तुझे दिल में रख लूँ

दर्द की छाँव में ज़ख़्मों की अमाँ में जा

आप को देख कर देखता रह गया

क्या कहूँ और कहने को क्या रह गया

अब तो फ़क़त बदन की मुरव्वत है दरमियाँ

था रब्त-ए-जान-ओ-दिल तो शुरूआ'त ही में था

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