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फ़ानी बदायुनी

1879 - 1941 | बदायूँ, भारत

अग्रणी पूर्व-आधुनिक शायरों में शामिल, शायरी के उदास रंग के लिए विख्यात।

अग्रणी पूर्व-आधुनिक शायरों में शामिल, शायरी के उदास रंग के लिए विख्यात।

फ़ानी बदायुनी के शेर

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शिकवा-ए-हिज्र पे सर काट के फ़रमाते हैं

फिर करोगे कभी इस मुँह से शिकायत मेरी

तिनकों से खेलते ही रहे आशियाँ में हम

आया भी और गया भी ज़माना बहार का

जिस्म-ए-आज़ादी में फूंकी तू ने मजबूरी की रूह

ख़ैर जो चाहा किया अब ये बता हम क्या करें

तुम्हीं कहो कि तुम्हें अपना समझ के क्या पाया

मगर यही कि जो अपने थे सब पराए हुए

दुनिया मेरी बला जाने महँगी है या सस्ती है

मौत मिले तो मुफ़्त लूँ हस्ती की क्या हस्ती है

मैं ने 'फ़ानी' डूबती देखी है नब्ज़-ए-काएनात

जब मिज़ाज-ए-यार कुछ बरहम नज़र आया मुझे

मुझे बुला के यहाँ आप छुप गया कोई

वो मेहमाँ हूँ जिसे मेज़बाँ नहीं मिलता

या कहते थे कुछ कहते जब उस ने कहा कहिए

तो चुप हैं कि क्या कहिए खुलती है ज़बाँ कोई

कुछ कटी हिम्मत-ए-सवाल में उम्र

कुछ उमीद-ए-जवाब में गुज़री

दैर में या हरम में गुज़रेगी

उम्र तेरे ही ग़म में गुज़रेगी

अपनी जन्नत मुझे दिखला सका तू वाइज़

कूचा-ए-यार में चल देख ले जन्नत मेरी

ना-मेहरबानियों का गिला तुम से क्या करें

हम भी कुछ अपने हाल पे अब मेहरबाँ नहीं

पथरा गई थी आँख मगर बंद तो थी

अब ये भी इंतिज़ार की सूरत नहीं रही

हर मुसीबत का दिया एक तबस्सुम से जवाब

इस तरह गर्दिश-ए-दौराँ को रुलाया मैं ने

रूह घबराई हुई फिरती है मेरी लाश पर

क्या जनाज़े पर मेरे ख़त का जवाब आने को है

दिल-ए-आबाद का 'फ़ानी' कोई मफ़्हूम नहीं

हाँ मगर जिस में कोई हसरत-ए-बर्बाद रहे

उस को भूले तो हुए हो 'फ़ानी'

क्या करोगे वो अगर याद आया

जिस दिल-रुबा से हम ने आँखें लड़ाइयाँ हैं

आख़िर उसी ने हम को आँखें दिखाइयाँ हैं

जी ढूँढता है घर कोई दोनों जहाँ से दूर

इस आप की ज़मीं से अलग आसमाँ से दूर

आबादी भी देखी है वीराने भी देखे हैं

जो उजड़े और फिर बसे दिल वो निराली बस्ती है

किस को ग़म है जो करे मर्सिया-ख़्वानी मेरी

रो रही है मिरे मरक़द पे जवानी मेरी

रोने के भी आदाब हुआ करते हैं 'फ़ानी'

ये उस की गली है तेरा ग़म-ख़ाना नहीं है

बे-ख़ुदी ठहर कि बहुत दिन गुज़र गए

मुझ को ख़याल-ए-यार कहीं ढूँडता हो

मौत का इंतिज़ार बाक़ी है

आप का इंतिज़ार था रहा

अपनी ही निगाहों का ये नज़्ज़ारा कहाँ तक

इस मरहला-ए-सई-ए-तमाशा से गुज़र जा

तर्क-ए-उम्मीद बस की बात नहीं

वर्ना उम्मीद कब बर आई है

सूर-ओ-मंसूर-ओ-तूर अरे तौबा

एक है तेरी बात का अंदाज़

मुझ तक उस महफ़िल में फिर जाम-ए-शराब आने को है

उम्र-ए-रफ़्ता पलटी आती है शबाब आने को है

वो सुब्ह-ए-ईद का मंज़र तिरे तसव्वुर में

वो दिल में के अदा तेरे मुस्कुराने की

किसी को क्या मिरे सूद ज़ियाँ से

गिरे क्यूँ बर्क़ बच कर आशियाँ से

ज़माना बर-सर-ए-आज़ार था मगर 'फ़ानी'

तड़प के हम ने भी तड़पा दिया ज़माने को

रूह अरबाब-ए-मोहब्बत की लरज़ जाती है

तू पशेमान हो अपनी जफ़ा याद कर

जवानी को बचा सकते तो हैं हर दाग़ से वाइ'ज़

मगर ऐसी जवानी को जवानी कौन कहता है

करम-ए-बे-हिसाब चाहा था

सितम-ए-बे-हिसाब में गुज़री

बीमार तिरे जी से गुज़र जाएँ तो अच्छा

जीते हैं मरते हैं ये मर जाएँ तो अच्छा

किस ख़राबी से ज़िंदगी 'फ़ानी'

इस जहान-ए-ख़राब में गुज़री

मौजों की सियासत से मायूस हो 'फ़ानी'

गिर्दाब की हर तह में साहिल नज़र आता है

दिल का उजड़ना सहल सही बसना सहल नहीं ज़ालिम

बस्ती बसना खेल नहीं बसते बसते बस्ती है

अब नए सुर से छेड़ पर्दा-ए-साज़

मैं ही था एक दुख-भरी आवाज़

जल्वा दिल में फ़र्क़ नहीं जल्वे को ही अब दिल कहते हैं

यानी इश्क़ की हस्ती का आग़ाज़ तो है अंजाम नहीं

इस दर्द का इलाज अजल के सिवा भी है

क्यूँ चारासाज़ तुझ को उम्मीद-ए-शिफ़ा भी है

गई है तिरे बीमार के मुँह पर रौनक़

जान क्या जिस्म से निकली कोई अरमाँ निकला

हर नफ़स उम्र-ए-गुज़िश्ता की है मय्यत 'फ़ानी'

ज़िंदगी नाम है मर मर के जिए जाने का

मेरे जुनूँ को ज़ुल्फ़ के साए से दूर रख

रस्ते में छाँव पा के मुसाफ़िर ठहर जाए

एक आलम को देखता हूँ मैं

ये तिरा ध्यान है मुजस्सम क्या

ज़िंदगी जब्र है और जब्र के आसार नहीं

हाए इस क़ैद को ज़ंजीर भी दरकार नहीं

किसी के एक इशारे में किस को क्या मिला

बशर को ज़ीस्त मिली मौत को बहाना मिला

जौर को जौर भी अब क्या कहिए

ख़ुद वो तड़पा के तड़प जाते हैं

मर के टूटा है कहीं सिलसिला-ए-क़ैद-ए-हयात

मगर इतना है कि ज़ंजीर बदल जाती है

हम हैं उस के ख़याल की तस्वीर

जिस की तस्वीर है ख़याल अपना

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