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फ़िराक़ गोरखपुरी के शेर
बहुत हसीन है दोशीज़गी-ए-हुस्न मगर
अब आ गए हो तो आओ तुम्हें ख़राब करें
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तिरा 'फ़िराक़' तो उस दिन तिरा फ़िराक़ हुआ
जब उन से प्यार किया मैं ने जिन से प्यार नहीं
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लाई न ऐसों-वैसों को ख़ातिर में आज तक
ऊँची है किस क़दर तिरी नीची निगाह भी
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समझना कम न हम अहल-ए-ज़मीं को
उतरते हैं सहीफ़े आसमाँ से
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वो कुछ रूठी हुई आवाज़ में तज्दीद-ए-दिल-दारी
नहीं भूला तिरा वो इल्तिफ़ात-ए-सर-गिराँ अब तक
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मिरे दिल से कभी ग़ाफ़िल न हों ख़ुद्दाम-ए-मय-ख़ाना
ये रिंद-ए-ला-उबाली बे-पिए भी तो बहकता है
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नींद आ चली है अंजुम-ए-शाम-ए-अबद को भी
आँख अहल-ए-इंतिज़ार की अब तक लगी नहीं
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जो उन मासूम आँखों ने दिए थे
वो धोके आज तक मैं खा रहा हूँ
आँख चुरा रहा हूँ मैं अपने ही शौक़-ए-दीद से
जल्वा-ए-हुस्न-ए-बे-पनाह तू ने ये क्या दिखा दिया
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लुत्फ़-ओ-सितम वफ़ा जफ़ा यास-ओ-उमीद क़ुर्ब-ओ-बोद
इश्क़ की उम्र कट गई चंद तवहहुमात में
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हयात हो कि अजल सब से काम ले ग़ाफ़िल
कि मुख़्तसर भी है कार-ए-जहाँ दराज़ भी है
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कुछ क़फ़स की तीलियों से छन रहा है नूर सा
कुछ फ़ज़ा कुछ हसरत-ए-परवाज़ की बातें करो
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हम से क्या हो सका मोहब्बत में
ख़ैर तुम ने तो बेवफ़ाई की
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दुनिया थी रहगुज़र तो क़दम मारना था सहल
मंज़िल हुई तो पाँव की ज़ंजीर हो गई
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रफ़्ता रफ़्ता इश्क़ मानूस-ए-जहाँ होने लगा
ख़ुद को तेरे हिज्र में तन्हा समझ बैठे थे हम
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अक़्ल में यूँ तो नहीं कोई कमी
इक ज़रा दीवानगी दरकार है
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मौत का भी इलाज हो शायद
ज़िंदगी का कोई इलाज नहीं
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इक फ़ुसूँ-सामाँ निगाह-ए-आश्ना की देर थी
इस भरी दुनिया में हम तन्हा नज़र आने लगे
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इश्क़ के दर्द का ख़ुद इश्क़ को एहसास नहीं
खिंच गया बादे से भी दुर्द-ए-तह-ए-जाम बहुत
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इनायत की करम की लुत्फ़ की आख़िर कोई हद है
कोई करता रहेगा चारा-ए-ज़ख़्म-ए-जिगर कब तक
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पर्दा-ए-लुत्फ़ में ये ज़ुल्म-ओ-सितम क्या कहिए
हाए ज़ालिम तिरा अंदाज़-ए-करम क्या कहिए
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मालूम है मोहब्बत लेकिन उसी के हाथों
ऐ जान-ए-इशक़ मैं ने तेरा बुरा भी चाहा
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माइल-ए-बेदाद वो कब था 'फ़िराक़'
तू ने उस को ग़ौर से देखा नहीं
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मैं आसमान-ए-मोहब्बत से रुख़्सत-ए-शब हूँ
तिरा ख़याल कोई डूबता सितारा है
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सरहद-ए-ग़ैब तक तुझे साफ़ मिलेंगे नक़्श-ए-पा
पूछ न ये फिरा हूँ मैं तेरे लिए कहाँ कहाँ
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मैं मुद्दतों जिया हूँ किसी दोस्त के बग़ैर
अब तुम भी साथ छोड़ने को कह रहे हो ख़ैर
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उसी दुनिया के कुछ नक़्श-ओ-निगार अशआ'र हैं मेरे
जो पैदा हो रही है हक़्क़-ओ-बातिल के तसादुम से
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ख़ुश भी हो लेते हैं तेरे बे-क़रार
ग़म ही ग़म हो इश्क़ में ऐसा नहीं
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वक़्त-ए-ग़ुरूब आज करामात हो गई
ज़ुल्फ़ों को उस ने खोल दिया रात हो गई
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तू याद आया तिरे जौर-ओ-सितम लेकिन न याद आए
मोहब्बत में ये मा'सूमी बड़ी मुश्किल से आती है
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ये माना ज़िंदगी है चार दिन की
बहुत होते हैं यारो चार दिन भी
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जो उलझी थी कभी आदम के हाथों
वो गुत्थी आज तक सुलझा रहा हूँ
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बहुत दिनों में मोहब्बत को ये हुआ मा'लूम
जो तेरे हिज्र में गुज़री वो रात रात हुई
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कहाँ हर एक से बार-ए-नशात उठता है
बलाएँ ये भी मोहब्बत के सर गई होंगी
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तारा टूटते सब ने देखा ये नहीं देखा एक ने भी
किस की आँख से आँसू टपका किस का सहारा टूट गया
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क़फ़स वालों की भी क्या ज़िंदगी है
चमन दूर आशियाँ दूर आसमाँ दूर
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फ़र्श-ए-मय-ख़ाना पे जलते चले जाते हैं चराग़
दीदनी है तिरी आहिस्ता-रवी ऐ साक़ी
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अब तो उन की याद भी आती नहीं
कितनी तन्हा हो गईं तन्हाइयाँ
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तिरा विसाल बड़ी चीज़ है मगर ऐ दोस्त
विसाल को मिरी दुनिया-ए-आरज़ू न बना
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पाल ले इक रोग नादाँ ज़िंदगी के वास्ते
सिर्फ़ सेह्हत के सहारे उम्र तो कटती नहीं
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किसी की बज़्म-ए-तरब में हयात बटती थी
उमीद-वारों में कल मौत भी नज़र आई
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कम से कम मौत से ऐसी मुझे उम्मीद नहीं
ज़िंदगी तू ने तो धोके पे दिया है धोका
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ज़ब्त कीजे तो दिल है अँगारा
और अगर रोइए तो पानी है
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सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं
लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं
व्याख्या
अपने विषय की दृष्टि से ये काफ़ी दिलचस्प शे’र है। सौदा के मायने जुनून या पागलपन के है। चूँकि इश्क़ दिल से शुरू होता है और पागलपन पर खत्म होता है। इश्क़ में पागलपन की हालत तब होती है जब आशिक़ का अपने दिमाग़ पर वश नहीं होता है। इस शे’र में फ़िराक़ ने मानव मनोविज्ञान के एक नाज़ुक पहलू को विषय बनाया है। कहते हैं कि हालांकि मैंने मुहब्बत करना छोड़ दिया है। यानी मुहब्बत से किनारा किया है। मेरे दिमाग़ में अब पागलपन की स्थिति भी नहीं है, और मेरे दिल में अब महबूब की इच्छा भी नहीं। मगर इश्क़ कब पलट कर आजाए इस बात का कोई भरोसा नहीं। आदमी अपनी तरफ़ से यही कर सकता है कि बुद्धि को विकार से और दिल को इच्छाओं से दूर रखे मगर इश्क़ का कोई भरोसा नहीं कि कब फिर बेक़ाबू कर दे।
शफ़क़ सुपुरी
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टैग : कशमकश
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दिलों को तेरे तबस्सुम की याद यूँ आई
कि जगमगा उठें जिस तरह मंदिरों में चराग़
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क्या जानिए मौत पहले क्या थी
अब मेरी हयात हो गई है
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रहा है तू मिरे पहलू में इक ज़माने तक
मिरे लिए तो वही ऐन हिज्र के दिन थे
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तिरे पहलू में क्यूँ होता है महसूस
कि तुझ से दूर होता जा रहा हूँ
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एक रंगीनी-ए-ज़ाहिर है गुलिस्ताँ में अगर
एक शादाबी-ए-पिन्हाँ है बयाबानों में
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ले उड़ी तुझ को निगाह-ए-शौक़ क्या जाने कहाँ
तेरी सूरत पर भी अब तेरा गुमाँ होता नहीं
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