फ़ुज़ैल जाफ़री
ग़ज़ल 34
अशआर 23
एहसास-ए-जुर्म जान का दुश्मन है 'जाफ़री'
है जिस्म तार तार सज़ा के बग़ैर भी
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चमकते चाँद से चेहरों के मंज़र से निकल आए
ख़ुदा हाफ़िज़ कहा बोसा लिया घर से निकल आए
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जो भर भी जाएँ दिल के ज़ख़्म दिल वैसा नहीं रहता
कुछ ऐसे चाक होते हैं जो जुड़ कर भी नहीं सिलते
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तअल्लुक़ात का तन्क़ीद से है याराना
किसी का ज़िक्र करे कौन एहतिसाब के साथ
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ये सच है हम को भी खोने पड़े कुछ ख़्वाब कुछ रिश्ते
ख़ुशी इस की है लेकिन हल्क़ा-ए-शर से निकल आए
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