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फ़ुज़ैल जाफ़री

1936 - 2018 | मुंबई, भारत

प्रतिष्ठित आधुनिक आलोचक

प्रतिष्ठित आधुनिक आलोचक

फ़ुज़ैल जाफ़री

ग़ज़ल 34

अशआर 23

एहसास-ए-जुर्म जान का दुश्मन है 'जाफ़री'

है जिस्म तार तार सज़ा के बग़ैर भी

चमकते चाँद से चेहरों के मंज़र से निकल आए

ख़ुदा हाफ़िज़ कहा बोसा लिया घर से निकल आए

जो भर भी जाएँ दिल के ज़ख़्म दिल वैसा नहीं रहता

कुछ ऐसे चाक होते हैं जो जुड़ कर भी नहीं सिलते

तअल्लुक़ात का तन्क़ीद से है याराना

किसी का ज़िक्र करे कौन एहतिसाब के साथ

ये सच है हम को भी खोने पड़े कुछ ख़्वाब कुछ रिश्ते

ख़ुशी इस की है लेकिन हल्क़ा-ए-शर से निकल आए

लेख 1

 

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