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इनआम आज़मी

1997 | क़तर

इनआम आज़मी

ग़ज़ल 11

अशआर 5

मुझे पता है मोहब्बत में क्या गुज़रती है

सो तुझ से इश्क़ नहीं तुझ से दोस्ती करूँगा

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उस ने इस तरह से बदला है रवय्या अपना

पूछना पड़ता है हर वक़्त तुम्हीं हो ना दोस्त

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अँधेरे इस लिए रहते हैं साथ साथ मिरे

ये जानते हैं मैं इक रोज़ रौशनी करूँगा

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लोग जैसे भी हों पैरों के तले रखते हैं

इतना आसाँ नहीं होता है ज़मीन होना दोस्त

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अब उस से कहना कि अगले हिस्से में आने वाला है मोड़ ऐसा

जहाँ किसी का मैं हल बनूँगा कोई मिरा मसअला बनेगा

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चित्र शायरी 1

 

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