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इरफ़ान सिद्दीक़ी

1939 - 2004 | लखनऊ, भारत

सबसे महत्वपूर्ण आधुनिक शायरों में शामिल, अपने नव-क्लासिकी लहजे के लिए विख्यात।

सबसे महत्वपूर्ण आधुनिक शायरों में शामिल, अपने नव-क्लासिकी लहजे के लिए विख्यात।

इरफ़ान सिद्दीक़ी के शेर

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हम ने देखा ही था दुनिया को अभी उस के बग़ैर

लीजिए बीच में फिर दीदा-ए-तर गए हैं

मौला, फिर मिरे सहरा से बिन बरसे बादल लौट गए

ख़ैर शिकायत कोई नहीं है अगले बरस बरसा देना

सुना था मैं ने कि फ़ितरत ख़ला की दुश्मन है

सो वो बदन मिरी तन्हाइयों को पाट गया

ख़िराज माँग रही है वो शाह-बानू-ए-शहर

सो हम भी हदिया-ए-दस्त-ए-तलब गुज़ारते हैं

इश्क़ क्या कार-ए-हवस भी कोई आसान नहीं

ख़ैर से पहले इसी काम के क़ाबिल हो जाओ

हम ने मुद्दत से उलट रक्खा है कासा अपना

दस्त-ए-दादार तिरे दिरहम-ओ-दीनार पे ख़ाक

उस को मंज़ूर नहीं है मिरी गुमराही भी

और मुझे राह पे लाना भी नहीं चाहता है

भूल जाओगे कि रहते थे यहाँ दूसरे लोग

कल फिर आबाद करेंगे ये मकाँ दूसरे लोग

ये हू का वक़्त ये जंगल घना ये काली रात

सुनो यहाँ कोई ख़तरा नहीं ठहर जाओ

परिंदो याद करती है तुम्हें पागल हवा

रोज़ इक नौहा सर-ए-शाख़ शजर सुनता हूँ मैं

अजब हरीफ़ था मेरे ही साथ डूब गया

मिरे सफ़ीने को ग़र्क़ाब देखने के लिए

आज तक उन की ख़ुदाई से है इंकार मुझे

मैं तो इक उम्र से काफ़िर हूँ सनम जानते हैं

उठो ये मंज़र-ए-शब-ताब देखने के लिए

कि नींद शर्त नहीं ख़्वाब देखने के लिए

कुछ हर्फ़ सुख़न पहले तो अख़बार में आया

फिर इश्क़ मिरा कूचा बाज़ार में आया

हम कौन शनावर थे कि यूँ पार उतरते

सूखे हुए होंटों की दुआ ले गई हम को

जान हम कार-ए-मोहब्बत का सिला चाहते थे

दिल-ए-सादा कोई मज़दूर है उजरत कैसी

दौलत-ए-सर हूँ सो हर जीतने वाला लश्कर

तश्त में रखता है नेज़े पे सजाता है मुझे

एक मैं हूँ कि इस आशोब-ए-नवा में चुप हूँ

वर्ना दुनिया मिरे ज़ख़्मों की ज़बाँ बोलती है

एक लड़का शहर की रौनक़ में सब कुछ भूल जाए

एक बुढ़िया रोज़ चौखट पर दिया रौशन करे

हरीफ़-ए-तेग़-ए-सितम-गर तो कर दिया है तुझे

अब और मुझ से तू क्या चाहता है सर मेरे

उन्हीं की शह से उन्हें मात करता रहता हूँ

सितमगरों की मुदारात करता रहता हूँ

हम बड़े अहल-ए-ख़िरद बनते थे ये क्या हो गया

अक़्ल का हर मशवरा दीवाना-पन लगने लगा

समुंदर अदा-फ़हम था रुक गया

कि हम पाँव पानी पे धरने को थे

सर अगर सर है तो नेज़ों से शिकायत कैसी

दिल अगर दिल है तो दरिया से बड़ा होना है

मेरे होने में किसी तौर से शामिल हो जाओ

तुम मसीहा नहीं होते हो तो क़ातिल हो जाओ

जिस्म की रानाइयों तक ख़्वाहिशों की भीड़ है

ये तमाशा ख़त्म हो जाए तो घर जाएँगे लोग

उदास ख़ुश्क लबों पर लरज़ रहा होगा

वो एक बोसा जो अब तक मिरी जबीं पे नहीं

तुम परिंदों से ज़ियादा तो नहीं हो आज़ाद

शाम होने को है अब घर की तरफ़ लौट चलो

ख़ुदा करे सफ़-ए-सरदादगाँ हो ख़ाली

जो मैं गिरूँ तो कोई दूसरा निकल आए

रफ़ाक़तों को ज़रा सोचने का मौक़ा दो

कि इस के ब'अद घने जंगलों का रस्ता है

हम तो रात का मतलब समझें ख़्वाब, सितारे, चाँद, चराग़

आगे का अहवाल वो जाने जिस ने रात गुज़ारी हो

मगर गिरफ़्त में आता नहीं बदन उस का

ख़याल ढूँढता रहता है इस्तिआरा कोई

कहा था तुम ने कि लाता है कौन इश्क़ की ताब

सो हम जवाब तुम्हारे सवाल ही के तो हैं

उस को रहता है हमेशा मरी वहशत का ख़याल

मेरे गुम-गश्ता ग़ज़ालों का पता चाहती है

मैं चाहता हूँ यहीं सारे फ़ैसले हो जाएँ

कि इस के ब'अद ये दुनिया कहाँ से लाऊँगा मैं

मैं झपटने के लिए ढूँढ रहा हूँ मौक़ा

और वो शोख़ समझता है कि शरमाता हूँ

दर्द कैसा जो डुबोए बहा ले जाए

क्या नदी जिस में रवानी हो गहराई हो

तिरे सिवा कोई कैसे दिखाई दे मुझ को

कि मेरी आँखों पे है दस्त-ए-ग़ाएबाना तिरा

क्या जज़्ब-ए-इश्क़ मुझ से ज़ियादा था ग़ैर में

उस का हबीब उस से जुदा क्यूँ नहीं हुआ

सरहदें अच्छी कि सरहद पे रुकना अच्छा

सोचिए आदमी अच्छा कि परिंदा अच्छा

हमें तो ख़ैर बिखरना ही था कभी कभी

हवा-ए-ताज़ा का झोंका बहाना हो गया है

जाने क्या ठान के उठता हूँ निकलने के लिए

जाने क्या सोच के दरवाज़े से लौट आता हूँ

हम सब आईना-दर-आईना-दर-आईना हैं

क्या ख़बर कौन कहाँ किस की तरफ़ देखता है

रूप की धूप कहाँ जाती है मालूम नहीं

शाम किस तरह उतर आती है रुख़्सारों पर

देख लेता है तो खिलते चले जाते हैं गुलाब

मेरी मिट्टी को ख़ुश-आसार किया है उस ने

मैं कहाँ तक दिल-ए-सादा को भटकने से बचाऊँ

आँख जब उठ्ठे गुनहगार बना दे मुझ को

मिरे गुमाँ ने मिरे सब यक़ीं जला डाले

ज़रा सा शोला भरी बस्तियों को चाट गया

हम भी पत्थर तुम भी पत्थर सब पत्थर टकराओ

हम भी टूटें तुम भी टूटो सब टूटें आमीन

आख़िर-ए-शब हुई आग़ाज़ कहानी अपनी

हम ने पाया भी तो इक उम्र गँवा कर उस को

ये हम ने भी सुना है आलम-ए-असबाब है दुनिया

यहाँ फिर भी बहुत कुछ बे-सबब होता ही रहता है

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