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Khumar Barabankavi's Photo'

ख़ुमार बाराबंकवी

1919 - 1999 | बाराबंकी, भारत

लोकप्रिय शायर, फिल्मी गीत भी लिखे।

लोकप्रिय शायर, फिल्मी गीत भी लिखे।

ख़ुमार बाराबंकवी के शेर

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रात बाक़ी थी जब वो बिछड़े थे

कट गई उम्र रात बाक़ी है

हैरत है तुम को देख के मस्जिद में 'ख़ुमार'

क्या बात हो गई जो ख़ुदा याद गया

चराग़ों के बदले मकाँ जल रहे हैं

नया है ज़माना नई रौशनी है

हाथ उठता नहीं है दिल से 'ख़ुमार'

हम उन्हें किस तरह सलाम करें

मिरे राहबर मुझ को गुमराह कर दे

सुना है कि मंज़िल क़रीब गई है

झुँझलाए हैं लजाए हैं फिर मुस्कुराए हैं

किस एहतिमाम से उन्हें हम याद आए हैं

दुश्मनों से प्यार होता जाएगा

दोस्तों को आज़माते जाइए

दूसरों पर अगर तब्सिरा कीजिए

सामने आइना रख लिया कीजिए

अब इन हुदूद में लाया है इंतिज़ार मुझे

वो भी जाएँ तो आए ए'तिबार मुझे

ग़म है अब ख़ुशी है उम्मीद है यास

सब से नजात पाए ज़माने गुज़र गए

हम पे गुज़रा है वो भी वक़्त 'ख़ुमार'

जब शनासा भी अजनबी से मिले

तुझ को बर्बाद तो होना था बहर-हाल 'ख़ुमार'

नाज़ कर नाज़ कि उस ने तुझे बर्बाद किया

इलाही मिरे दोस्त हों ख़ैरियत से

ये क्यूँ घर में पत्थर नहीं रहे हैं

दुश्मनों से पशेमान होना पड़ा है

दोस्तों का ख़ुलूस आज़माने के बाद

मुझे को महरूमी-ए-नज़ारा क़ुबूल

आप जल्वे अपने आम करें

जलते दियों में जलते घरों जैसी ज़ौ कहाँ

सरकार रौशनी का मज़ा हम से पूछिए

वही फिर मुझे याद आने लगे हैं

जिन्हें भूलने में ज़माने लगे हैं

हाल-ए-ग़म कह के ग़म बढ़ा बैठे

तीर मारे थे तीर खा बैठे

जाने वाले कि तिरे इंतिज़ार में

रस्ते को घर बनाए ज़माने गुज़र गए

भूले हैं रफ़्ता रफ़्ता उन्हें मुद्दतों में हम

क़िस्तों में ख़ुद-कुशी का मज़ा हम से पूछिए

हम भी कर लें जो रौशनी घर में

फिर अंधेरे कहाँ क़याम करें

हद से बढ़े जो इल्म तो है जहल दोस्तो

सब कुछ जो जानते हैं वो कुछ जानते नहीं

आज नागाह हम किसी से मिले

बा'द मुद्दत के ज़िंदगी से मिले

आप ने दिन बना दिया था जिसे

ज़िंदगी भर वो रात याद आई

याद करने पे भी दोस्त आए याद

दोस्तों के करम याद आते रहे

ये कहना था उन से मोहब्बत है मुझ को

ये कहने में मुझ को ज़माने लगे हैं

हटाए थे जो राह से दोस्तों की

वो पत्थर मिरे घर में आने लगे हैं

तो होश से तआरुफ़ जुनूँ से आश्नाई

ये कहाँ पहुँच गए हैं तिरी बज़्म से निकल के

हारा है इश्क़ और दुनिया थकी है

दिया जल रहा है हवा चल रही है

अक़्ल दिल अपनी अपनी कहें जब 'ख़ुमार'

अक़्ल की सुनिए दिल का कहा कीजिए

मोहब्बत को समझना है तो नासेह ख़ुद मोहब्बत कर

किनारे से कभी अंदाज़ा-ए-तूफ़ाँ नहीं होता

रौशनी के लिए दिल जलाना पड़ा

कैसी ज़ुल्मत बढ़ी तेरे जाने के बअ'द

कहीं शेर नग़्मा बन के कहीं आँसुओं में ढल के

वो मुझे मिले तो लेकिन कई सूरतें बदल के

सुना है हमें वो भुलाने लगे हैं

तो क्या हम उन्हें याद आने लगे हैं

ये वफ़ा की सख़्त राहें ये तुम्हारे पाँव नाज़ुक

लो इंतिक़ाम मुझ से मिरे साथ साथ चल के

मुझे तो उन की इबादत पे रहम आता है

जबीं के साथ जो सज्दे में दिल झुका सके

सहरा को बहुत नाज़ है वीरानी पे अपनी

वाक़िफ़ नहीं शायद मिरे उजड़े हुए घर से

फूल कर ले निबाह काँटों से

आदमी ही आदमी से मिले

इक गुज़ारिश है हज़रत-ए-नासेह

आप अब और कोई काम करें

ऐसा नहीं कि उन से मोहब्बत नहीं रही

जज़्बात में वो पहली सी शिद्दत नहीं रही

ख़ुदा बचाए तिरी मस्त मस्त आँखों से

फ़रिश्ता हो तो बहक जाए आदमी क्या है

गुज़रे हैं मय-कदे से जो तौबा के ब'अद हम

कुछ दूर आदतन भी क़दम डगमगाए हैं

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