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किश्वर नाहीद के शेर
कुछ दिन तो मलाल उस का हक़ था
बिछड़ा तो ख़याल उस का हक़ था
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दिल में है मुलाक़ात की ख़्वाहिश की दबी आग
मेहंदी लगे हाथों को छुपा कर कहाँ रक्खूँ
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उदासियों को तो आँगन ही चाहिएँ ख़ाली
छतों पे चाँदनी रातों का सिलसिला रखना
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अब सिर्फ़ लिबास रह गया है
वो ले गया कल बदन चुरा कर
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मान भी लूँ कि तिरी याद महज़ वाहिमा है
फिर भी वो याद ही दम-साज़ रही शाम-ओ-सहर
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अपनी बे-चेहरगी छुपाने को
आईने को इधर उधर रक्खा
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भेजी हैं उस ने फूलों में मुँह-बंद सीपियाँ
इंकार भी अजब है बुलावा भी है अजब
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शामिल हूँ मैं तेरे रतजगों में
जागूँ भी तो तेरे ख़्वाब सोचूँ
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अब तो बदन के जलने की बू शहर भर में है
कहना भी नारवा है सो कहता नहीं कोई
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एक मौहूम सा रिश्ता है सो रखना इस को
तुम जहाँ जाओ समझ लेना वहीं हम भी थे
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शायद उदास शाख़ों से लिपटा हुआ मिले
अपनी गली में उस का ठिकाना भी है अजब
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उस को फ़ुर्सत भी नहीं मुझ को तमन्ना भी नहीं
फिर ख़लिश क्या है कि रह रह के वफ़ा ढूँढती है
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हाँ उन्ही गुज़रे ज़मानों के सदा-साज़ हैं हम
जिन के शो'लों पे हवा नाचती देखी हम ने
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तअल्लुक़ात के तावीज़ भी गले में नहीं
मलाल देखने आया है रास्ता कैसे
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हमें अज़ीज़ हैं इन बस्तियों की दीवारें
कि जिन के साए भी दीवार बनते जाते थे
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कौन जाने कि उड़ती हुई धूप भी
किस तरफ़ कौन सी मंज़िलों में गई
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टैग : धूप
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वो जब भी आया बहुत तेज़ बारिशों जैसा
वो जिस ने चाहा मुझे सुरमई घटा रखना
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अपना नाम भी अब तो भूल गई 'नाहीद'
कोई पुकारे तो हैरत से तकती हूँ
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लरज़ रही है ज़मीं सहमी लड़कियों की तरह
पुकारती है कि तन्हा न छोड़ कर जाना
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दिल को तिरे फ़िराक़ की आरज़ू याद रह गई
दिन वो मोहब्बतों के भी मिस्ल-ए-रह-ए-सफ़र गए
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मर्दों को सब रवा प है औरत को नारवा
शर्म-ओ-हया का शहर में चर्चा भी है अजब
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मलाल उस को भी था और उदास हम भी थे
ये कैसी पहली मुलाक़ात थी कि ग़म भी थे
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दिल को भी ग़म का सलीक़ा न था पहले पहले
उस को भी भूलना अच्छा लगा पहले पहले
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कुछ यूँ ही ज़र्द ज़र्द सी 'नाहीद' आज थी
कुछ ओढ़नी का रंग भी खिलता हुआ न था
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जवान गेहूँ के खेतों को देख कर रो दें
वो लड़कियाँ कि जिन्हें भूल बैठीं माएँ भी
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टैग : औरत
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वो जिस का शौक़ है खिलते गुलाब मल देना
गले मिलो तो उसे भी उदास कर जाना
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माँग में टाँकने आया था सितारे कोई
दिल को क्या सूझी कि उस ख़्वाब को बीमार किया
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हमें देखो हमारे पास बैठो हम से कुछ सीखो
हमीं ने प्यार माँगा था हमीं ने दाग़ पाए हैं
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ये ज़िंदगी जिसे ढूँडा था आसमानों में
हवा के हाथ पे लिक्खी हुई इबारत थी
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उसे ही बात सुनाने को दिल नहीं करता
वो शख़्स जिस के लिए ज़िंदगी समाअ'त थी
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