महताब हैदर नक़वी
ग़ज़ल 33
अशआर 3
एक मैं हूँ और दस्तक कितने दरवाज़ों पे दूँ
कितनी दहलीज़ों पे सज्दा एक पेशानी करे
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नए सफ़र की लज़्ज़तों से जिस्म ओ जाँ को सर करो
सफ़र में होंगी बरकतें सफ़र करो सफ़र करो
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मतलब के लिए हैं न मआनी के लिए हैं
ये शेर तबीअत की रवानी के लिए हैं
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