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मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद

1929 - 2016 | लखनऊ, भारत

उर्दू के प्रमुख साहित्यिक व्यक्तित्व/मुशायरों के स्तरीय संचालन के लिए प्रसिद्ध

उर्दू के प्रमुख साहित्यिक व्यक्तित्व/मुशायरों के स्तरीय संचालन के लिए प्रसिद्ध

मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद

ग़ज़ल 19

नज़्म 1

 

अशआर 23

अजीब दर्द का रिश्ता है सारी दुनिया में

कहीं हो जलता मकाँ अपना घर लगे है मुझे

काश दौलत-ए-ग़म ही अपने पास बच रहती

वो भी उन को दे बैठे ऐसी मात खाई है

खिल उठे गुल या खिले दस्त-ए-हिनाई तेरे

हर तरफ़ तू है तो फिर तेरा पता किस से करें

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दौर-ए-इशरत ने सँवारे हैं ग़ज़ल के गेसू

फ़िक्र के पहलू मगर ग़म की बदौलत आए

रस्म-ए-ताज़ीम रुस्वा हो जाए

इतना मत झुकिए कि सज्दा हो जाए

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पुस्तकें 53

चित्र शायरी 1

 

वीडियो 7

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शायर अपना कलाम पढ़ते हुए
khuda kare ke jo aaye hamare baad wo log hamare fan ki

Malikzada Manzoor Ahmed Born on 17th Oct,1929, in Bhidhunpur, Malikzada Manzoor showed his literary talent at an early age. He acquired PG degree in Urdu & English and later did Ph.D in Urdu literature. He is extremely good at recitation and has recited many ghazals/nazams at mushairas and such other literary functions. Malikzada Manzoor retired as professor, department of Urdu, Lucknow University. He is the author of several books and had also worked as an editor 'Imkaan" (monthly Urdu literary Journal from Lucknow). मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद

कुछ ग़म-ए-जानाँ कुछ ग़म-ए-दौराँ दोनों मेरी ज़ात के नाम

मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद

ज़िंदगी में पहले इतनी तो परेशानी न थी

मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद

तर्क-ए-मोहब्बत अपनी ख़ता हो ऐसा भी हो सकता है

मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद

न ख़ौफ़-ए-बर्क़ न ख़ौफ़-ए-शरर लगे है मुझे

मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद

मामूल पे साहिल रहता है फ़ितरत पे समुंदर होता है

मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद

ऑडियो 6

कुछ ग़म-ए-जानाँ कुछ ग़म-ए-दौराँ दोनों मेरी ज़ात के नाम

ज़िंदगी में पहले इतनी तो परेशानी न थी

तर्क-ए-मोहब्बत अपनी ख़ता हो ऐसा भी हो सकता है

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