क़ैसर शमीम के शेर
मेरा मज़हब इश्क़ का मज़हब जिस में कोई तफ़रीक़ नहीं
मेरे हल्क़े में आते हैं 'तुलसी' भी और 'जामी' भी
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टैग : धार्मिक सदभावना
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उस के आँगन में रौशनी थी मगर
घर के अंदर बड़ा अँधेरा था
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किसी मंज़िल में भी हासिल न हुआ दिल को क़रार
ज़िंदगी ख़्वाहिश-ए-नाकाम ही करते गुज़री
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सब्ज़ मौसम से मुझे क्या लेना
शाख़ से अपनी जुदा हूँ बाबा
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मौसम 'अजीब रहता है दिल के दयार का
आगे हैं लू के झोंके भी ठंडी हवा के बा'द
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साज़ से मेरे ग़लत नग़्मों की उम्मीद न कर
आग की आग है दिल में तो धुआँ क्यूँकर हो
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