सईद क़ैस के शेर
तुम अपने दरिया का रोना रोने आ जाते हो
हम तो अपने सात समुंदर पीछे छोड़ आए हैं
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उसी के लुत्फ़ से बस्ती निहाल है सारी
तमाम पेड़ लगाए हुए उसी के हैं
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अपनी आवाज़ सुनाई नहीं देती मुझ को
एक सन्नाटा कि गलियों में बहुत बोलता है
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मैं भी अपनी ज़ात में आबाद हूँ
मेरे अंदर भी क़बीले हैं बहुत
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तुम से मिलने का बहाना तक नहीं
और बिछड़ जाने के हीले हैं बहुत
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तलब के रास्ते पर आ गया हूँ
बताओ अब मुझे जाना कहाँ है
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चेहरा चेहरा ग़म है अपने मंज़र में
और आँखों के पीछे एक नुमाइश है
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