साहिर होशियारपुरी के शेर
हम को अग़्यार का गिला क्या है
ज़ख़्म खाएँ हैं हम ने यारों से
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वो और होंगे पी के जो सरशार हो गए
हर जाम से हमें तो नई तिश्नगी मिली
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दिल वो सहरा है कि जिस में रात दिन
फूल खिलते हैं बहार आती नहीं
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अपनी अपनी ज़ात में गुम हैं अहल-ए-दिल भी अहल-ए-नज़र भी
महफ़िल में दिल क्यूँकर बहले महफ़िल में तन्हाई बहुत है
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कौन कहता है मोहब्बत की ज़बाँ होती है
ये हक़ीक़त तो निगाहों से बयाँ होती है
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जब बिगड़ते हैं बात बात पे वो
वस्ल के दिन क़रीब होते हैं
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हम क़रीब आ कर और दूर हुए
अपने अपने नसीब होते हैं
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तुम न तौबा करो जफ़ाओं से
हम वफ़ाओं से तौबा करते हैं
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हुई थी ख़्वाब में ख़ुशबू सी महसूस
तुम आए ख़्वाब की ता'बीर देखी
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अब तो एहसास-ए-तमन्ना भी नहीं
क़ाफ़िला दिल का लुटा हो जैसे
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अहल-ए-कश्ती ने ख़ुद-कुशी की थी
हुआ बदनाम नाख़ुदा का नाम
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आख़िर तड़प तड़प के ये ख़ामोश हो गया
दिल को सुकून मिल ही गया इज़्तिराब में
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फिर किसी बेवफ़ा की याद आई
फिर किसी ने लिया वफ़ा का नाम
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