शमीम हनफ़ी
लेख 50
ड्रामा 4
अशआर 6
तमाम उम्र नए लफ़्ज़ की तलाश रही
किताब-ए-दर्द का मज़मूँ था पाएमाल ऐसा
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बंद कर ले खिड़कियाँ यूँ रात को बाहर न देख
डूबती आँखों से अपने शहर का मंज़र न देख
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मैं ने चाहा था कि लफ़्ज़ों में छुपा लूँ ख़ुद को
ख़ामुशी लफ़्ज़ की दीवार गिरा देती है
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शाम ने बर्फ़ पहन रक्खी थी रौशनियाँ भी ठंडी थीं
मैं इस ठंडक से घबरा कर अपनी आग में जलने लगा
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ग़ज़ल 31
नज़्म 1
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