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वसीम बरेलवी

1940 | बरेली, भारत

लोकप्रिय शायर।

लोकप्रिय शायर।

वसीम बरेलवी के शेर

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चराग़ घर का हो महफ़िल का हो कि मंदिर का

हवा के पास कोई मस्लहत नहीं होती

तुम गए हो तो कुछ चाँदनी सी बातें हों

ज़मीं पे चाँद कहाँ रोज़ रोज़ उतरता है

सभी रिश्ते गुलाबों की तरह ख़ुशबू नहीं देते

कुछ ऐसे भी तो होते हैं जो काँटे छोड़ जाते हैं

ग़म और होता सुन के गर आते वो 'वसीम'

अच्छा है मेरे हाल की उन को ख़बर नहीं

दुख अपना अगर हम को बताना नहीं आता

तुम को भी तो अंदाज़ा लगाना नहीं आता

मैं ने चाहा है तुझे आम से इंसाँ की तरह

तू मिरा ख़्वाब नहीं है जो बिखर जाएगा

अपने चेहरे से जो ज़ाहिर है छुपाएँ कैसे

तेरी मर्ज़ी के मुताबिक़ नज़र आएँ कैसे

आज पी लेने दे साक़ी मुझे जी लेने दे

कल मिरी रात ख़ुदा जाने कहाँ गुज़रेगी

'वसीम' ज़ेहन बनाते हैं तो वही अख़बार

जो ले के एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते

शाम तक सुब्ह की नज़रों से उतर जाते हैं

इतने समझौतों पे जीते हैं कि मर जाते हैं

आते आते मिरा नाम सा रह गया

उस के होंटों पे कुछ काँपता रह गया

फूल तो फूल हैं आँखों से घिरे रहते हैं

काँटे बे-कार हिफ़ाज़त में लगे रहते हैं

पाने से किसी के है कुछ खोने से मतलब है

ये दुनिया है इसे तो कुछ कुछ होने से मतलब है

तमाम दिन की तलब राह देखती होगी

जो ख़ाली हाथ चले हो तो घर नहीं जाना

होंटों को रोज़ इक नए दरिया की आरज़ू

ले जाएगी ये प्यास की आवारगी कहाँ

तुम मेरी तरफ़ देखना छोड़ो तो बताऊँ

हर शख़्स तुम्हारी ही तरफ़ देख रहा है

झूट के आगे पीछे दरिया चलते हैं

सच बोला तो प्यासा मारा जाएगा

वो पूछता था मिरी आँख भीगने का सबब

मुझे बहाना बनाना भी तो नहीं आया

इन्हें तो ख़ाक में मिलना ही था कि मेरे थे

ये अश्क कौन से ऊँचे घराने वाले थे

किसी से कोई भी उम्मीद रखना छोड़ कर देखो

तो ये रिश्ता निभाना किस क़दर आसान हो जाए

रख देता है ला ला के मुक़ाबिल नए सूरज

वो मेरे चराग़ों से कहाँ बोल रहा है

झूट वाले कहीं से कहीं बढ़ गए

और मैं था कि सच बोलता रह गया

जिस्म की चाह लकीरों से अदा करता है

ख़ाक समझेगा मुसव्विर तिरी अंगड़ाई को

ऐसे रिश्ते का भरम रखना कोई खेल नहीं

तेरा होना भी नहीं और तिरा कहलाना भी

कभी लफ़्ज़ों से ग़द्दारी करना

ग़ज़ल पढ़ना अदाकारी करना

भरे मकाँ का भी अपना नशा है क्या जाने

शराब-ख़ाने में रातें गुज़ारने वाला

कुछ है कि जो घर दे नहीं पाता है किसी को

वर्ना कोई ऐसे तो सफ़र में नहीं रहता

थके-हारे परिंदे जब बसेरे के लिए लौटें

सलीक़ा-मंद शाख़ों का लचक जाना ज़रूरी है

आसमाँ इतनी बुलंदी पे जो इतराता है

भूल जाता है ज़मीं से ही नज़र आता है

बहुत से ख़्वाब देखोगे तो आँखें

तुम्हारा साथ देना छोड़ देंगी

उसी को जीने का हक़ है जो इस ज़माने में

इधर का लगता रहे और उधर का हो जाए

रात तो वक़्त की पाबंद है ढल जाएगी

देखना ये है चराग़ों का सफ़र कितना है

मैं इस उमीद पे डूबा कि तू बचा लेगा

अब इस के बा'द मिरा इम्तिहान क्या लेगा

मैं भी उसे खोने का हुनर सीख पाया

उस को भी मुझे छोड़ के जाना नहीं आता

जो मुझ में तुझ में चला रहा है बरसों से

कहीं हयात इसी फ़ासले का नाम हो

'वसीम' देखना मुड़ मुड़ के वो उसी की तरफ़

किसी को छोड़ के जाना भी तो नहीं आया

मुझे पढ़ता कोई तो कैसे पढ़ता

मिरे चेहरे पे तुम लिक्खे हुए थे

वो मेरे घर नहीं आता मैं उस के घर नहीं जाता

मगर इन एहतियातों से तअल्लुक़ मर नहीं जाता

हमारे घर का पता पूछने से क्या हासिल

उदासियों की कोई शहरियत नहीं होती

कोई इशारा दिलासा कोई व'अदा मगर

जब आई शाम तिरा इंतिज़ार करने लगे

मोहब्बत के घरों के कच्चे-पन को ये कहाँ समझें

इन आँखों को तो बस आता है बरसातें बड़ी करना

मैं उस को पूज तो सकता हूँ छू नहीं सकता

जो फ़ासलों की तरह मेरे साथ रहता है

तिरे ख़याल के हाथों कुछ ऐसा बिखरा हूँ

कि जैसे बच्चा किताबें इधर उधर कर दे

तुझे पाने की कोशिश में कुछ इतना खो चुका हूँ मैं

कि तू मिल भी अगर जाए तो अब मिलने का ग़म होगा

शराफ़तों की यहाँ कोई अहमियत ही नहीं

किसी का कुछ बिगाड़ो तो कौन डरता है

मैं उस को आँसुओं से लिख रहा हूँ

कि मेरे ब'अद कोई पढ़ पाए

हर शख़्स दौड़ता है यहाँ भीड़ की तरफ़

फिर ये भी चाहता है उसे रास्ता मिले

वो ग़म अता किया दिल-ए-दीवाना जल गया

ऐसी भी क्या शराब कि पैमाना जल गया

मुसलसल हादसों से बस मुझे इतनी शिकायत है

कि ये आँसू बहाने की भी तो मोहलत नहीं देते

उसूलों पर जहाँ आँच आए टकराना ज़रूरी है

जो ज़िंदा हो तो फिर ज़िंदा नज़र आना ज़रूरी है

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