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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

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ज़ुहूर नज़र के शेर

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अपनी सूरत बिगड़ गई लेकिन

हम उन्हें आईना दिखा के रहे

वो जिसे सारे ज़माने ने कहा मेरा रक़ीब

मैं ने उस को हम-सफ़र जाना कि तू उस की भी थी

घर से उस का भी निकलना हो गया आख़िर मुहाल

मेरी रुस्वाई से शोहरत कू-ब-कू उस की भी थी

वो भी शायद रो पड़े वीरान काग़ज़ देख कर

मैं ने उस को आख़िरी ख़त में लिखा कुछ भी नहीं

तन्हाई पूछ अपनी कि साथ अहल-ए-जुनूँ के

चलते हैं फ़क़त चंद क़दम राह के ख़म भी

बाद-ए-तर्क-ए-उल्फ़त भी यूँ तो हम जिए लेकिन

वक़्त बे-तरह बीता उम्र बे-सबब गुज़री

सुनते हैं चमकता है वो चाँद अब भी सर-ए-बाम

हसरत है कि बस एक नज़र देख लें हम भी

सो सका हूँ शब जाग कर गुज़ारी है

अजीब दिन हैं सुकूँ है बे-क़रारी है

लुट गया है सफ़र में जो कुछ था

पास अपने मकान तक भी नहीं

ख़ुद को पाने की तलब में आरज़ू उस की भी थी

मैं जो मिल जाता तो उस में आबरू उस की भी थी

बरसों से खड़ा हूँ हाथ उठाए

तासीर-ए-दुआ का मुंतज़िर हूँ

पास हमारे आकर तुम बेगाना से क्यूँ हो

चाहो तो हम फिर कुछ दूरी पर छोड़ आएँ तुम्हें

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