दिलावर अली आज़र के शेर
इक दिन जो यूँही पर्दा-ए-अफ़्लाक उठाया
बरपा था तमाशा कोई तन्हाई से आगे
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मैं जब मैदान ख़ाली कर के आया
मिरा दुश्मन अकेला रह गया था
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बदन को छोड़ ही जाना है रूह ने 'आज़र'
हर इक चराग़ से आख़िर धुआँ निकलता है
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चाँद तारे तो मिरे बस में नहीं हैं 'आज़र'
फूल लाया हूँ मिरा हाथ कहाँ तक जाता
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उस से मिलना तो उसे ईद-मुबारक कहना
ये भी कहना कि मिरी ईद मुबारक कर दे
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टैग : ईद
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सभी के हाथ में पत्थर थे 'आज़र'
हमारे हाथ में इक आईना था
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वही सितारा-नुमा इक चराग़ है 'आज़र'
मिरा ख़याल था निकलेगा ताक़ से कुछ और
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उसे किसी से मोहब्बत न थी मगर उस ने
गुलाब तोड़ के दुनिया को शक में डाल दिया
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सुख़न-सराई कोई सहल काम थोड़ी है
ये लोग किस लिए जंजाल में पड़े हुए हैं
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अब मुझ को एहतिमाम से कीजे सुपुर्द-ए-ख़ाक
उक्ता चुका हूँ जिस्म का मलबा उठा के मैं
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एक लम्हे के लिए तन्हा नहीं होने दिया
ख़ुद को अपने साथ रक्खा जिस जहाँ की सैर की
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उस से कुछ ख़ास तअल्लुक़ भी नहीं है अपना
मैं परेशान हुआ जिस की परेशानी पर
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तुम ख़ुद ही दास्तान बदलते हो दफ़अतन
हम वर्ना देखते नहीं किरदार से परे
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