शकेब जलाली
ग़ज़ल 59
नज़्म 14
अशआर 42
अभी अरमान कुछ बाक़ी हैं दिल में
मुझे फिर आज़माया जा रहा है
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जो मोतियों की तलब ने कभी उदास किया
तो हम भी राह से कंकर समेट लाए बहुत
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प्यार की जोत से घर घर है चराग़ाँ वर्ना
एक भी शम्अ न रौशन हो हवा के डर से
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ये एक अब्र का टुकड़ा कहाँ कहाँ बरसे
तमाम दश्त ही प्यासा दिखाई देता है
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लोग देते रहे क्या क्या न दिलासे मुझ को
ज़ख़्म गहरा ही सही ज़ख़्म है भर जाएगा
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