अमीर इमाम
ग़ज़ल 109
नज़्म 10
अशआर 25
इस बार राह-ए-इश्क़ कुछ इतनी तवील थी
उस के बदन से हो के गुज़रना पड़ा मुझे
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न आबशार न सहरा लगा सके क़ीमत
हम अपनी प्यास को ले कर दहन में लौट आए
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पहले सहरा से मुझे लाया समुंदर की तरफ़
नाव पर काग़ज़ की फिर मुझ को सवार उस ने किया
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वो मारका कि आज भी सर हो नहीं सका
मैं थक के मुस्कुरा दिया जब रो नहीं सका
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सोच लो ये दिल-लगी भारी न पड़ जाए कहीं
जान जिस को कह रहे हो जान होती जाएगी
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चित्र शायरी 2
चलते चलते ये गली बे-जान होती जाएगी रात होती जाएगी सुनसान होती जाएगी देखना क्या है नज़र-अंदाज़ करना है किसे मंज़रों की ख़ुद-ब-ख़ुद पहचान होती जाएगी उस के चेहरे पर मुसलसल आँख रुक सकती नहीं आँख बार-ए-हुस्न से हलकान होती जाएगी सोच लो ये दिल-लगी भारी न पड़ जाए कहीं जान जिस को कह रहे हो जान होती जाएगी कर ही क्या सकती है दुनिया और तुझ को देख कर देखती जाएगी और हैरान होती जाएगी काकुल-ए-ख़मदार में ख़म और आते जाएँगे ज़ुल्फ़ उस की और भी शैतान होती जाएगी आते आते इश्क़ करने का हुनर आ जाएगा रफ़्ता-रफ़्ता ज़िंदगी आसान होती जाएगी जा चुकीं ख़ुशियाँ तो अब ग़म हिजरतें करने लगे दिल की बस्ती इस तरह वीरान होती जाएगी