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अमीर हम्ज़ा साक़िब

1971 | भिवंडी, भारत

एक बहुत प्रतिभाशाली उर्दू शायर, अपने अनूठे अंदाज़ और गहरी साहित्यिक समझ के लिए जाने जाते हैं

एक बहुत प्रतिभाशाली उर्दू शायर, अपने अनूठे अंदाज़ और गहरी साहित्यिक समझ के लिए जाने जाते हैं

अमीर हम्ज़ा साक़िब के शेर

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एक जहान-ए-ला-यानी ग़र्क़ाब हुआ

एक जहान-ए-मानी की तश्कील हुई

रौशन अलाव होते ही आया तरंग में

वो क़िस्सा-गो ख़ुद अपने में इक दास्तान था

मकाँ उजाड़ था और ला-मकाँ की ख़्वाहिश थी

सो अपने आप से बाहर क़याम कर लिया है

लहू जिगर का हुआ सर्फ़-ए-रंग-ए-दस्त-ए-हिना

जो सौदा सर में था सहरा खंगालने में गया

मेरी बरहना पुश्त थी कोड़ों से सब्ज़ सुर्ख़

गोरे बदन पे उस के भी नीला निशान था

तू आया लौट आया है गुज़रे दिनों का नूर

चेहरों पे अपने वर्ना तो बरसों का ज़ंग था

तुम्हारी ज़ात हवाला है सुर्ख़-रूई का

तुम्हारे ज़िक्र को सब शर्त-ए-फ़न बनाते हैं

मेरी दुनिया इसी दुनिया में कहीं रहती है

वर्ना ये दुनिया कहाँ हुस्न-ए-तलब थी मेरा

ये गर्द है मिरी आँखों में किन ज़मानों की

नए लिबास भी अब तो पुराने लगते हैं

तेरी ख़ुशबू तिरा पैकर है मिरे शेरों में

जान यूँही नहीं ये तर्ज़-ए-मिसाली मेरा

तह कर चुके बिसात-ए-ग़म-ओ-फ़िक्र-ए-रोज़गार

तब ख़ानक़ाह-ए-इश्क़-ओ-मोहब्बत में आए हैं

फिर बदन में थकन की गर्द लिए

फिर लब-ए-जू-ए-बार हैं हम लोग

ख़बर भी है तुझे इस दफ़्तर-ए-मोहब्बत को

जलाने जलने में क्या क्या ज़माने लगते हैं

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