अज़हर फ़राग़ के शेर
दफ़्तर से मिल नहीं रही छुट्टी वगर्ना मैं
बारिश की एक बूँद न बे-कार जाने दूँ
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बहुत ग़नीमत हैं हम से मिलने कभी कभी के ये आने वाले
वगर्ना अपना तो शहर भर में मकान ताले से जाना जाए
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तेज़ आँधी में ये भी काफ़ी है
पेड़ तस्वीर में बचा लिया जाए
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ये ए'तिमाद भी मेरा दिया हुआ है तुम्हें
जो मेरे मशवरे बे-कार जाने लग गए हैं
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तुझ से कुछ और त'अल्लुक़ भी ज़रूरी है मिरा
ये मोहब्बत तो किसी वक़्त भी मर सकती है
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एक ही वक़्त में प्यासे भी हैं सैराब भी हैं
हम जो सहराओं की मिट्टी के घड़े होते हैं
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मैं जानता हूँ मुझे मुझ से माँगने वाले
पराई चीज़ का जो लोग हाल करते हैं
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ये कच्चे सेब चबाने में इतने सहल नहीं
हमारा सब्र न करना भी एक हिम्मत है
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मिल गया तू मुझे मेरा नहीं रहने देगा
वो समुंदर मुझे क़तरा नहीं रहने देगा
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गीले बालों को सँभाल और निकल जंगल से
इस से पहले कि तिरे पाँव ये झरना पड़ जाए
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कुछ नहीं दे रहा सुझाई हमें
इस क़दर रौशनी का क्या कीजे
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महसूस कर लिया था भँवर की थकान को
यूँही तो ख़ुद को रक़्स पे माइल नहीं किया
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दलील उस के दरीचे की पेश की मैं ने
किसी को पतली गली से नहीं निकलने दिया
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अच्छे-ख़ासे लोगों पर भी वक़्त इक ऐसा आ जाता है
और किसी पर हँसते हँसते ख़ुद पर रोना आ जाता है
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वो दस्तियाब हमें इस लिए नहीं होता
हम इस्तिफ़ादा नहीं देख-भाल करते हैं
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मेरी नुमू है तेरे तग़ाफ़ुल से वाबस्ता
कम बारिश भी मुझ को काफ़ी हो सकती है
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ऐसी ग़ुर्बत को ख़ुदा ग़ारत करे
फूल भेजवाने की गुंजाइश न हो
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हमारी मा'ज़रत ऐ ग़म कि मुस्कुरा रहे हैं
हम अपना हाथ तिरी पुश्त से हटा रहे हैं
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भँवर से ये जो मुझे बादबान खींचता है
ज़रूर कोई हवाओं के कान खींचता है
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वैसे तो ईमान है मेरा उन बाँहों की गुंजाइश पर
देखना ये है उस कश्ती में कितना दरिया आ जाता है
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बदल के देख चुकी है रेआया साहिब-ए-तख़्त
जो सर क़लम नहीं करता ज़बान खींचता है
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उसे कहो जो बुलाता है गहरे पानी में
किनारे से बंधी कश्ती का मसअला समझे
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ठहरना भी मिरा जाना शुमार होने लगा
पड़े पड़े मैं पुराना शुमार होने लगा
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बता रहा है झटकना तिरी कलाई का
ज़रा भी रंज नहीं है तुझे जुदाई का
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ख़ुद पर हराम समझा समर के हुसूल को
जब तक शजर को छाँव के क़ाबिल नहीं किया
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मैं ये चाहता हूँ कि उम्र-भर रहे तिश्नगी मिरे इश्क़ में
कोई जुस्तुजू रहे दरमियाँ तिरे साथ भी तिरे बा'द भी
आँख खुलते ही जबीं चूमने आ जाते हैं
हम अगर ख़्वाब में भी तुम से लड़े होते हैं
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निकल गया था वो हसीन अपनी ज़ुल्फ़ बाँध कर
हवा की बाक़ियात को समेटते रहे हैं हम
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टैग : ज़ुल्फ़
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तेरी शर्तों पे ही करना है अगर तुझ को क़ुबूल
ये सुहुलत तो मुझे सारा जहाँ देता है
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ये ख़मोशी मिरी ख़मोशी है
इस का मतलब मुकालिमा लिया जाए
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दीवारें छोटी होती थीं लेकिन पर्दा होता था
तालों की ईजाद से पहले सिर्फ़ भरोसा होता था
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ये जो रहते हैं बहुत मौज में शब भर हम लोग
सुब्ह होते ही किनारे पे पड़े होते हैं
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एक होने की क़स्में खाई जाएँ
और आख़िर में कुछ दिया लिया जाए
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गिरते पेड़ों की ज़द में हैं हम लोग
क्या ख़बर रास्ता खुले कब तक
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बहुत से साँप थे इस ग़ार के दहाने पर
दिल इस लिए भी ख़ज़ाना शुमार होने लगा
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ये नहीं देखते कितनी है रियाज़त किस की
लोग आसान समझ लेते हैं आसानी को
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मेरा इश्क़ तो ख़ैर मिरी महरूमी का पर्वर्दा था
क्या मालूम था वो भी देगा मेरा इतना टूट के साथ
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टैग : इश्क़
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ये लोग जा के कटी बोगियों में बैठ गए
समय को रेल की पटरी के साथ चलने दिया
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हमारे ज़ाहिरी अहवाल पर न जा हम लोग
क़याम अपने ख़द-ओ-ख़ाल में नहीं करते
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टैग : अहवाल
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हम अपनी नेकी समझते तो हैं तुझे लेकिन
शुमार नामा-ए-आमाल में नहीं करते
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किसी बदन की सयाहत निढाल करती है
किसी के हाथ का तकिया थकान खींचता है
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जब तक माथा चूम के रुख़्सत करने वाली ज़िंदा थी
दरवाज़े के बाहर तक भी मुँह में लुक़्मा होता था
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टैग : माँ
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ख़तों को खोलती दीमक का शुक्रिया वर्ना
तड़प रही थी लिफ़ाफ़ों में बे-ज़बानी पड़ी
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टैग : शुक्रिया
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इज़ाला हो गया ताख़ीर से निकलने का
गुज़र गई है सफ़र में मिरे क़याम की शाम
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मंज़र-ए-शाम-ए-ग़रीबाँ है दम-ए-रुख़्सत-ए-ख़्वाब
ताज़िए की तरह उट्ठा है कोई बिस्तर से
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उस से हम पूछ थोड़ी सकते हैं
उस की मर्ज़ी जहाँ रखे जिस को
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