दिलावर अली आज़र
ग़ज़ल 26
अशआर 13
चाँद तारे तो मिरे बस में नहीं हैं 'आज़र'
फूल लाया हूँ मिरा हाथ कहाँ तक जाता
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बदन को छोड़ ही जाना है रूह ने 'आज़र'
हर इक चराग़ से आख़िर धुआँ निकलता है
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मैं जब मैदान ख़ाली कर के आया
मिरा दुश्मन अकेला रह गया था
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सभी के हाथ में पत्थर थे 'आज़र'
हमारे हाथ में इक आईना था
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