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जमाल एहसानी

1951 - 1998 | कराची, पाकिस्तान

सबसे महत्वपूर्ण उत्तर-आधुनिक पाकिस्तानी शायरों में से एक, अपने विशीष्ट काव्य अनुभव के लिए विख्यात।

सबसे महत्वपूर्ण उत्तर-आधुनिक पाकिस्तानी शायरों में से एक, अपने विशीष्ट काव्य अनुभव के लिए विख्यात।

जमाल एहसानी के शेर

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मुझ को मालूम है मेरी ख़ातिर

कहीं इक जाल बुना रक्खा है

बिछड़ते वक़्त ढलकता गर इन आँखों से

इस एक अश्क का क्या क्या मलाल रह जाता

उस ने बारिश में भी खिड़की खोल के देखा नहीं

भीगने वालों को कल क्या क्या परेशानी हुई

और अब ये चाहता हूँ कोई ग़म बटाए मिरा

मैं अपनी मिट्टी कभी आप ढोने वाला था

मनहूस एक शक्ल है जिस से नहीं फ़रार

परछाईं की तरह से बराबर लगी हुई

किसी भी वक़्त बदल सकता है लम्हा कोई

इस क़दर ख़ुश भी हो मेरी परेशानी पर

वो हसीन मैं ख़ूब-रू मगर इक साथ

हमें जो देख ले वो देखता ही रह जाए

चारों जानिब रची हुई है अश्कों की बू-बास

इस रस्ते से गुज़रे होंगे क़ाफ़िले हिजरत वाले

जानता हूँ मिरे क़िस्सा-गो ने

अस्ल क़िस्से को छुपा रक्खा है

दिन गुज़रते जा रहे हैं और हुजूम-ए-ख़ुश-गुमाँ

मुंतज़िर बैठा है आब ख़ाक से बिछड़ा हुआ

वो लोग मेरे बहुत प्यार करने वाले थे

गुज़र गए हैं जो मौसम गुज़रने वाले थे

ये जो लड़ता-झगड़ता हूँ सब से

बच रहा हूँ क़ुबूल-ए-आम से मैं

बोझ से झुकने लगी शाख़ तो जा कर हम ने

आशियाने को किसी और शजर पर रक्खा

ख़ुद जिसे मेहनत मशक़्क़त से बनाता हूँ 'जमाल'

छोड़ देता हूँ वो रस्ता आम हो जाने के बा'द

सुब्ह आता हूँ यहाँ और शाम हो जाने के बा'द

लौट जाता हूँ मैं घर नाकाम हो जाने के बा'द

हम ऐसे बे-हुनरों में है जो सलीक़ा-ए-ज़ीस्त

तिरे दयार में पल-भर क़याम से आया

तमाम रात नहाया था शहर बारिश में

वो रंग उतर ही गए जो उतरने वाले थे

चराग़ बुझते चले जा रहे हैं सिलसिला-वार

मैं ख़ुद को देख रहा हूँ फ़साना होते हुए

इक आदमी से तर्क-ए-मरासिम के बा'द अब

क्या उस गली से कोई गुज़रना भी छोड़ दे

जो दिल के ताक़ में तू ने चराग़ रक्खा था

पूछ मैं ने उसे किस तरह सितारा किया

हारने वालों ने इस रुख़ से भी सोचा होगा

सर कटाना है तो हथियार डाले जाएँ

तिरा फ़िराक़ तो रिज़्क़-ए-हलाल है मुझ को

ये फल पराए शजर से उतारा थोड़ी है

सुनते हैं उस ने ढूँड लिया और कोई घर

अब तक जो आँख थी तिरे दर पर लगी हुई

दुनिया पसंद आने लगी दिल को अब बहुत

समझो कि अब ये बाग़ भी मुरझाने वाला है

ये ग़म नहीं है कि हम दोनों एक हो सके

ये रंज है कि कोई दरमियान में भी था

ज़मीं-ज़ाद तिरी रिफ़अतें छूने के लिए

तुझ तलक मैं कई अफ़्लाक बदल कर आया

तिरे आने से दिल भी नहीं दुखा शायद

वगरना क्या मैं सर-ए-शाम सोने वाला था

ये किस मक़ाम पे सूझी तुझे बिछड़ने की

कि अब तो जा के कहीं दिन सँवरने वाले थे

क़रार दिल को सदा जिस के नाम से आया

वो आया भी तो किसी और काम से आया

रंज-ए-हिजरत था और शौक़-ए-सफ़र था दिल में

सब अपने अपने गुनाह का बोझ ढो रहे थे

कौन है इस रिम-झिम के पीछे छुपा हुआ

ये आँसू सारे के सारे किस के हैं

ख़त्म होने को हैं अश्कों के ज़ख़ीरे भी 'जमाल'

रोए कब तक कोई इस शहर की वीरानी पर

किसी के होने होने के बारे में अक्सर

अकेले-पन में बड़े ध्यान जाया करते हैं

थकन बहुत थी मगर साया-ए-शजर में 'जमाल'

मैं बैठता तो मिरा हम-सफ़र चला जाता

जो आसमाँ की बुलंदी को छूने वाला था

वही मिनारा ज़मीं पर धड़ाम से आया

'जमाल' हर शहर से है प्यारा वो शहर मुझ को

जहाँ से देखा था पहली बार आसमान मैं ने

इक लहर उस की आँख में है हौसला-शिकन

इक रंग उस के चेहरे पे बहकाने वाला है

उस रस्ते पर पीछे से इतनी आवाज़ें आईं 'जमाल'

एक जगह तो घूम के रह गई एड़ी सीधे पाँव की

माएँ दरवाज़ों पर हैं

बारिश होने वाली है

मिरा कमाल कि मैं इस फ़ज़ा में ज़िंदा हूँ

दु'आ मिलते हुए और हवा होते हुए

नए सिरे से जल उट्ठी है फिर पुरानी आग

अजीब लुत्फ़ तुझे भूलने में आया है

क्या कहूँ ऊबने लगा हूँ 'जमाल'

एक ही जैसे सुब्ह शाम से मैं

याद रखना ही मोहब्बत में नहीं है सब कुछ

भूल जाना भी बड़ी बात हुआ करती है

दो जीवन ताराज हुए तब पूरी हुई बात

कैसा फूल खिला है और कैसी वीरानी में

कुछ और वुस'अतें दरकार हैं मोहब्बत को

विसाल-ओ-हिज्र पे दार-ओ-मदार मुश्किल है

क्या उस से मुलाक़ात का इम्काँ भी नहीं अब

क्यूँ इन दिनों मैली तिरी पोशाक बहुत है

जो मेरे ज़िक्र पर अब क़हक़हे लगाता है

बिछड़ते वक़्त कोई हाल देखता उस का

ये कौन आने जाने लगा उस गली में अब

ये कौन मेरी दास्ताँ दोहराने वाला है

ये ग़म जुदा है बहुत जल्द-बाज़ थे हम तुम

ये दुख अलग है अभी काएनात बाक़ी है

इक सफ़र में कोई दो बार नहीं लुट सकता

अब दोबारा तिरी चाहत नहीं की जा सकती

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