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जयंत परमार

1955 | अहमदाबाद, भारत

साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित, उर्दू में दलित विशर्ष दाखिल करने वाले पहले शायर

साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित, उर्दू में दलित विशर्ष दाखिल करने वाले पहले शायर

जयंत परमार

ग़ज़ल 5

 

नज़्म 10

अशआर 5

जुगनू था तारा था क्या था

दरवाज़े पर कौन खड़ा था

दिल को दुखाती है फिर भी क्यूँ अच्छी लगती है

यादों की ये शाम सुहानी दिल में क़ैद हुई

बिस्तर पे लेटे लेटे मिरी आँख लग गई

ये कौन मेरे कमरे की बत्ती बुझा गया

लम्स की वो रौशनी भी बुझ गई

जिस्म के अंदर अंधेरा और है

हर एक शाख़ के हाथों में फूल महकेंगे

ख़िज़ाँ का पेड़ भी कपड़े बदलना चाहता है

दोहा 6

आस बँधाती है सदा सुख की होगी भोर

अपने इरादों को अभी मत करना कमज़ोर

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जाड़े की रुत है नई तन पर नीली शाल

तेरे साथ अच्छी लगी सर्दी अब के साल

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मैं हूँ और ये दूर तक धूप का रस्ता साथ

काँधे पर साया कोई रख देता है हाथ

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माँग भरूँ सिंदूर से सजूँ सोला-सिंगार

जब तक पहनूँगी नहीं उन बाहोँ का हार

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लाख छुपाए छुपे इन रातों का भेद

आँखों के आकाश में पढ़े थे चारों वेद

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पुस्तकें 11

ऑडियो 5

उस ने मज़ाक़ समझा मिरा दिल दुखा गया

ग़ुबार-ए-जाँ से सितारा निकलना चाहता है

चाँद उन आँखों ने देखा और है

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