मनीश शुक्ला के शेर
लुत्फ़ तो देती है ये आवारगी
फिर भी हम को लौट जाना चाहिए
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तुझे जब देखता हूँ तो ख़ुद अपनी याद आती है
मिरा अंदाज़ हँसने का कभी तेरे ही जैसा था
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हम ने तो पास-ए-अदब में बंदा-परवर कह दिया
और वो समझे कि सच में बंदा-परवर हो गए
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अव्वल आख़िर ही जब नहीं बस में
क्या करें दरमियान की बातें
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कितनी उजलत में मिटा डाला गया
आग में सब कुछ जला डाला गया
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अब तक जिस्म सुलगता है
कैसी थी बरसात न पूछ
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हम चराग़ों की मदद करते रहे
और उधर सूरज बुझा डाला गया
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ज़माने से घबरा के सिमटे थे ख़ुद में
मगर अब तो ख़ुद से भी उकता रहे हैं
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वक़्त कहाँ मुट्ठी में आने वाला था
लेकिन हम ने बाँध लिया तस्वीरों में
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अब अपना चेहरा बेगाना लगता है
हम को थी संजीदा रहने की आदत
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मिरे दिल में कोई मासूम बच्चा
किसी से आज तक रूठा हुआ है
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सुना है रात पूरे चाँद की है
समुंदर शाम से बहका हुआ है
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किसी के इश्क़ में बर्बाद होना
हमें आया नहीं फ़रहाद होना
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काग़ज़ों पर मुफ़्लिसी के मोर्चे सर हो गए
और कहने के लिए हालात बेहतर हो गए
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कोई ता'मीर की सूरत तो निकले
हमें मंज़ूर है बुनियाद होना
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चंद लकीरें तो इस दर्जा गहरी थीं
देखने वाला डूब गया तस्वीरों में
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सफ़र में अब मुसलसल ज़लज़ले हैं
वो रुक जाएँ जिन्हें गिरने का डर है
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बताऊँ क्या तुम्हें हासिल सफ़र का
अधूरी दास्ताँ है और मैं हूँ
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बात करने का हसीं तौर-तरीक़ा सीखा
हम ने उर्दू के बहाने से सलीक़ा सीखा
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टैग : उर्दू
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उसी ने राह दिखलाई जहाँ को
जो अपनी राह पर तन्हा गया था
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आख़िर हम को बे-ज़ारी तक ले आई
हर शय पर गिरवीदा रहने की आदत
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मिरी आवारगी ही मेरे होने की अलामत है
मुझे फिर इस सफ़र के ब'अद भी कोई सफ़र देना
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कितने लोगों से मिलना-जुलना था
ख़ुद से मिलना भी अब मुहाल हुआ
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दिल का सारा दर्द भरा तस्वीरों में
एक मुसव्विर नक़्श हुआ तस्वीरों में
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ज़िंदगी देख ले नज़र भर के
हम हैं शामिल तिरे ख़राबों में
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मैं था जब कारवाँ के साथ तो गुलज़ार थी दुनिया
मगर तन्हा हुआ तो हर तरफ़ सहरा ही सहरा था
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गुफ़्तुगू का कोई तो मिलता सिरा
फिर उसे नाराज़ कर के देखते
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उड़ानों ने किया था इस क़दर मायूस उन को
थके-हारे परिंदे जाल में ख़ुद फँस रहे थे
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