सहर अंसारी के शेर
दिलों का हाल तो ये है कि रब्त है न गुरेज़
मोहब्बतें तो गईं थी अदावतें भी गईं
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मौत के बाद ज़ीस्त की बहस में मुब्तला थे लोग
हम तो 'सहर' गुज़र गए तोहमत-ए-ज़िंदगी उठाए
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जाने क्यूँ रंग-ए-बग़ावत नहीं छुपने पाता
हम तो ख़ामोश भी हैं सर भी झुकाए हुए हैं
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सदा अपनी रविश अहल-ए-ज़माना याद रखते हैं
हक़ीक़त भूल जाते हैं फ़साना याद रखते हैं
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अजीब होते हैं आदाब-ए-रुख़स्त-ए-महफ़िल
कि वो भी उठ के गया जिस का घर न था कोई
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कैसी कैसी महफ़िलें सूनी हुईं
फिर भी दुनिया किस क़दर आबाद है
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न अब वो शिद्दत-ए-आवारगी न वहशत-ए-दिल
हमारे नाम की कुछ और शोहरतें भी गईं
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मिरे लहू को मिरी ख़ाक-ए-नागुज़ीर को देख
यूँही सलीक़ा-ए-अर्ज़-ए-हुनर नहीं आया
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शायद कि वो वाक़िफ़ नहीं आदाब-ए-सफ़र से
पानी में जो क़दमों के निशाँ ढूँड रहा था
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महफ़िल-आराई हमारी नहीं इफ़रात का नाम
कोई हो या कि न हो आप तो आए हुए हैं
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ये मरना जीना भी शायद मजबूरी की दो लहरें हैं
कुछ सोच के मरना चाहा था कुछ सोच के जीना चाहा है
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तिरी आरज़ू से भी क्यूँ नहीं ग़म-ए-ज़िंदगी में कोई कमी
ये सवाल वो है कि जिस का अब कोई इक जवाब नहीं रहा
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तंग आते भी नहीं कशमकश-ए-दहर से लोग
क्या तमाशा है कि मरते भी नहीं ज़हर से लोग
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हम को जन्नत की फ़ज़ा से भी ज़ियादा है अज़ीज़
यही बे-रंग सी दुनिया यही बे-मेहर से लोग
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शिकवा-ए-तलख़ी-ए-हालात बजा है लेकिन
इस पे रोता हूँ कि मैं ने भी रुलाया है तुझे
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जिसे गुज़ार गए हम बड़े हुनर के साथ
वो ज़िंदगी थी हमारी हुनर न था कोई
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