सिराज अजमली के शेर
जिस रात में न हिज्र हो ने वस्ल 'अजमली'
उस रात में कहाँ की ग़ज़ल जागते रहो
ता-सुब्ह मेरी लाश रही बे-कफ़न तो क्या
बानू-ए-शाम नौहा-कुनाँ ही नहीं हुई
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शाम-ए-मिम्बर पर फ़ज़ीलत के बहुत संजीदा फ़रहाँ
सुब्ह-दम अफ़्सुर्दगी के फ़र्श पर बिखरा हुआ मैं
जो नहीं होता बहुत होती है शोहरत उस की
जो गुज़रती है वो अशआ'र में आती ही नहीं
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यूँ सरापा इल्तिजा बन कर मिला था पहले रोज़
इतनी जल्दी वो ख़ुदा हो जाएगा सोचा न था
उसे जिस शब मधुर आवाज़ में गाना था लाज़िम
रिवायत है कि उस शब भी परिंदा चुप रहा था
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टैग : गायन
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