ताहिर फ़राज़ के शेर
धूप मुझ को जो लिए फिरती है साए साए
है तो आवारा मगर ज़ेहन में घर रखती है
ख़त्म हो जाएगा जिस दिन भी तुम्हारा इंतिज़ार
घर के दरवाज़े पे दस्तक चीख़ती रह जाएगी
इस बुलंदी पे बहुत तन्हा हूँ
काश मैं सब के बराबर होता
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उस ज़ाविए से देखिए आईना-ए-हयात
जिस ज़ाविए से मैं ने लगाया है धूप में
जब भी टूटा मिरे ख़्वाबों का हसीं ताज-महल
मैं ने घबरा के कही 'मीर' के लहजे में ग़ज़ल
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टैग : मीर तक़ी मीर
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तारीकियों ने ख़ुद को मिलाया है धूप में
साया जो शाम का नज़र आया है धूप में
हादसे राह के ज़ेवर हैं मुसाफ़िर के लिए
एक ठोकर जो लगी है तो इरादा न बदल
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टैग : हादसा
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उम्र-भर को मुझे बे-सदा कर गया
तेरा इक बार मुँह फेर कर बोलना
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टैग : आवाज़
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जेल से वापस आ कर उस ने पांचों वक़्त नमाज़ पढ़ी
मुँह भी बंद हुए सब के और बदनामी भी ख़त्म हुई
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टैग : ज़िंदाँ
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जिन को नींदों की न हो चादर नसीब
उन से ख़्वाबों का हसीं बिस्तर न माँग
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टैग : नींद
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कैसे मानूँ कि ज़माने की ख़बर रखती है
गर्दिश-ए-वक़्त तो बस मुझ पे नज़र रखती है
तमाम दिन के दुखों का हिसाब करना है
मैं चाहता हूँ कोई मेरे आस-पास न हो
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टैग : तन्हाई
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मिरे हुनर का उसे भी न था कुछ अंदाज़ा
मलाल ये है उसे दूसरी शिकस्त हुई
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क्या ख़बर थी आएगा इक रोज़ ऐसा वक़्त भी
मेरी गोयाई तिरा मुँह देखती रह जाएगी
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आदमी हूँ वस्फ़-ए-पैग़म्बर न माँग
मुझ से मेरे दोस्त मेरा सर न माँग
दिल भी लहूलुहान है आँखें भी हैं उदास
शायद अना ने शह-रग-ए-जज़्बात काट दी
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काँपते होंट भीगती पलकें
बात अधूरी ही छोड़ देता हूँ
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टैग : लब
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पुराने अह्द के क़िस्से सुनाता रहता है
बचा हुआ है जो बूढ़ा शजर हमारी तरफ़
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टैग : शजर
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काश ऐसा कोई मंज़र होता
मेरे काँधे पे तिरा सर होता
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