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ज़ियाउल मुस्तफ़ा तुर्क

1976 | मुल्तान, पाकिस्तान

ज़ियाउल मुस्तफ़ा तुर्क के शेर

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तू किसी सुब्ह सी आँगन में उतर आती है

मैं किसी धूप सा दालान में जाता हूँ

थोड़ी सी बारिश होती है

कितनी जल्दी भर जाता हूँ

किवाड़ खुलने से पहले ही दिन निकल आया

बशारतें अभी सामान में पड़ी हुई थीं

मैं जागते में कहीं बन रहा हूँ अज़-सर-ए-नौ

वो अपने ख़्वाब में तश्कील कर रहा है मुझे

हम अपने आप से भी हम-सुख़न होते थे

कि सारी मुश्किलें आसान में पड़ी हुई थीं

तिरी ख़्वाहिश किसी इम्काँ की सूरत

हमेशा मुझ में तह-दर-तह रही है

तुझ को छुआ तो देर तक ख़ुद को ही ढूँडता रहा

इतनी सी देर में भला तुझ से कहाँ मिला हूँ मैं

हर एक साज़ को साज़िंदगाँ नहीं दरकार

बदन को ज़र्बत-ए-मिज़राब से इलाक़ा नहीं

समझ पाया नहीं पर सुन रहा हूँ

वो सरगोशी में क्या क्या कह रही है

यूँ तो मुसहफ़ भी उठाए गए क़समें भी मगर

आख़िरी फ़ैसला तलवार उठाने से हुआ

किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं

तुम्हारे बाद किसी ख़्वाब से इलाक़ा नहीं

क़तरा क़तरा छत से ही रिसने लगी

धूप का रस्ता था दीवार में

जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ

मालिक इन फूलों की उम्र दराज़ करे

आवाज़ों में बहते बहते

ख़ामोशी से मर जाता हूँ

तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए

कभी मैं ख़ुद को तिरे नाम से बुलाता हुआ

मेरे गिर्या से आज़ार उठाने से हुआ

फ़ासला तय नई दीवार उठाने से हुआ

अब्र से और धूप से रिश्ता है एक सा मिरा

आइने और चराग़ के बीच का फ़ासला हूँ मैं

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