ज़ियाउल मुस्तफ़ा तुर्क के शेर
तू किसी सुब्ह सी आँगन में उतर आती है
मैं किसी धूप सा दालान में आ जाता हूँ
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थोड़ी सी बारिश होती है
कितनी जल्दी भर जाता हूँ
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किवाड़ खुलने से पहले ही दिन निकल आया
बशारतें अभी सामान में पड़ी हुई थीं
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मैं जागते में कहीं बन रहा हूँ अज़-सर-ए-नौ
वो अपने ख़्वाब में तश्कील कर रहा है मुझे
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हम अपने आप से भी हम-सुख़न न होते थे
कि सारी मुश्किलें आसान में पड़ी हुई थीं
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तिरी ख़्वाहिश किसी इम्काँ की सूरत
हमेशा मुझ में तह-दर-तह रही है
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तुझ को छुआ तो देर तक ख़ुद को ही ढूँडता रहा
इतनी सी देर में भला तुझ से कहाँ मिला हूँ मैं
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हर एक साज़ को साज़िंदगाँ नहीं दरकार
बदन को ज़र्बत-ए-मिज़राब से इलाक़ा नहीं
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टैग : बदन
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समझ पाया नहीं पर सुन रहा हूँ
वो सरगोशी में क्या क्या कह रही है
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यूँ तो मुसहफ़ भी उठाए गए क़समें भी मगर
आख़िरी फ़ैसला तलवार उठाने से हुआ
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किसी सफ़र किसी अस्बाब से इलाक़ा नहीं
तुम्हारे बाद किसी ख़्वाब से इलाक़ा नहीं
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क़तरा क़तरा छत से ही रिसने लगी
धूप का रस्ता न था दीवार में
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जब बच्चों को देखता हूँ तो सोचता हूँ
मालिक इन फूलों की उम्र दराज़ करे
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आवाज़ों में बहते बहते
ख़ामोशी से मर जाता हूँ
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तिरे ग़याब को मौजूद में बदलते हुए
कभी मैं ख़ुद को तिरे नाम से बुलाता हुआ
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मेरे गिर्या से न आज़ार उठाने से हुआ
फ़ासला तय नई दीवार उठाने से हुआ
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अब्र से और धूप से रिश्ता है एक सा मिरा
आइने और चराग़ के बीच का फ़ासला हूँ मैं
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