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लेखक : अली सरदार जाफ़री

संस्करण संख्या : 001

प्रकाशक : अंजुमन तरक़्क़ी उर्दू (हिन्द), अलीगढ

मूल : अलीगढ़, भारत

प्रकाशन वर्ष : 1951

भाषा : Urdu

श्रेणियाँ : शोध एवं समीक्षा, आंदोलन

उप श्रेणियां : आलोचना, साहित्यिक आंदोलन

पृष्ठ : 271

सहयोगी : जामिया हमदर्द, देहली

taraqqi pasand adab
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पुस्तक: परिचय

اردو میں ترقی پسند تحریک بیسویں صدی کی تیسری دہائی سے شروع ہو جاتی ہے۔یہ تحریک باضابطہ اپنے مینی فیسٹو کے ساتھ سامنے آتی ہے جس میں ہر ایک کے لیے رہنمائی ہوتی ہے ۔ اس تحریک کے تحت اکثر قلمکاروں نے اپنی نگارشات تخلیق کر نا شروع کردیں ۔ اردو کے بڑے بڑے ادیب اس کے بینر تلے آگئے۔ کچھ نے خود کو اس تخریک کے لیے وقف بھی کر دیا اور کچھ منسلک رہ کر تخلیقات سامنے لاتے رہے ۔ علی سردار جعفری کاشمار ان ادیبوں میں سے ہوتا ہے جنہوں نے خود کو اسی تحریک کے لیے وقف کیا ، تخلیق بھی کی اور تنقید کی یہ لازوال کتاب بھی سامنے لائے۔ یہ کتاب پہلی مرتبہ 1951میں پھر 1957 میں شائع ہوئی ۔ یہ کتاب جس زمانہ میں شائع ہوتی ہے وہ ترقی پسندی کے عروج کا دور ہے اس وقت تک اس تحریک کے لیے باضابطہ کوئی تنقید ی کتاب سامنے نہیں آئی تھی اس لیے اس کتاب کو تعارفی کتاب بھی کہا جاتا ہے جس میں تحریک کا جواز بھی پیش ہوتا ہے۔ یہ تحریک جس طر ح سے سرحدوں کو توڑ کر عالمی ہوئی اور عالمی ادب میں اپنی شناخت بنائی اس سے کوئی منکر نہیں۔ اس کتاب کے بعد خلیل اعظمی کی کتاب آئی جس میں معروضی مطالعہ ہے، پھر بے شمار کتابیں آئیں لیکن اولیت اسی کو حاصل رہی۔ سردار جعفری نے چھ باب میں اپنی بات مکمل کی ہے جس میں نقطہ نگاہ، بنیادی مسائل ، تاریخی پس منظر ، حقیقت نگاری رومانیت ، ترقی پسند مصنفین کی تحریکیں اورتخلیقی رجحانا ت پر گفتگو کی گئی ہے۔

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लेखक: परिचय

 तरक़्क़ी-पसंद शायरी की नुमाइंदा आवाज़

“हमें आज भी कबीर की रहनुमाई की ज़रूरत है। उस रोशनी की ज़रूरत है जो उस संत के दिल में पैदा हुई थी। आज साईंस की बेपनाह तरक़्क़ी ने इंसान की सत्ता को बढ़ा दिया है। इंसान सितारों पर कमंद फेंक रहा है फिर भी तुच्छ है। वो रंगों में बंटा हुआ है, क़ौमों में विभाजित है। उसके दरमियान मज़हब की दीवार खड़ी है। उसके लिए एक नए यक़ीन, नए ईमान और एक नई मुहब्बत की ज़रूरत है।”
(सरदार जाफ़री)

उर्दू के लिए सरदार जाफ़री की सामूहिक सेवाओं को देखते हुए उन्हें मात्र एक विश्वस्त प्रगतिशील शायर की श्रेणी में डाल देना उनके साथ नाइंसाफ़ी है। इसमें शक नहीं कि प्रगतिवादी विचारधारा उनकी नस-नस में रच-बस गया था लेकिन एक राजनीतिक कार्यकर्ता, शायर, आलोचक और गद्यकार के साथ साथ उनके अंदर एक विचारक, विद्वान और सबसे बढ़कर एक इंसान दोस्त हमेशा साँसें लेता रहा। कम्यूनिज़्म से उनकी सम्बद्धता सोवीयत यूनीयन के विघटन के बाद भी “वफ़ादारी ब-शर्त-ए-उस्तुवारी अस्ल-ए-ईमाँ है” का व्यावहारिक प्रमाण देना, उनकी इमानदारी, मानवप्रेम और हर प्रकार के सामाजिक व आर्थिक उत्पीड़न के विरुद्ध उनकी अटूट प्रतिबद्धता का प्रमाण है।

सरदार जाफ़री ने वर्तमान परिस्थितियों और ज़िंदगी में रोज़मर्रा पेश आने वाले नित नई समस्याओं को अपनी शायरी का विषय बनाया और अपने दौर के नाड़ी विशेषज्ञ की हैसियत से उन्होंने जो देखा उसे अपनी शायरी में पेश कर दिया। सरदार जाफ़री की शख़्सियत तहदार थी। उन्होंने शायरी के अलावा रचनात्मक गद्य के उत्कृष्ट नमूने उर्दू को दिए। विद्वत्तापूर्ण गद्य में उनकी किताब "तरक़्क़ी-पसंद अदब” उनकी आलोचनात्मक अंतर्दृष्टि की ओर इशारा करती है। वो अफ़साना निगार और नाटककार भी थे। उनको उर्दू में विद्वता की बेहतरीन मिसाल कहा जा सकता है। वो बौद्धिक, साहित्यिक, दार्शनिक, राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर माहिराना गुफ़्तगु करते थे। अपने 86 वर्षीय जीवन में उन्होंने बेशुमार लेक्चर दिए। उन्होंने एक साहित्यकार के रूप में विभिन्न देशों के दौरे किए और इस तरह उर्दू के अंतर्राष्ट्रीय दूत का कर्तव्य बख़ूबी अंजाम दिया। अगर हम शायरी में उनकी तुलना प्रगतिशील आंदोलन के सबसे बड़े शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ से करें तो पता चलता है कि फ़ैज़ की शायरी में समाजवाद को तलाश करना पड़ता है जबकि सरदार के समाजवाद में उनकी शायरी ढूंढनी पड़ती है।

सरदार जाफ़री का शे’री लब-ओ-लहजा इक़बाल और जोश मलीहाबादी की तरह बुलंद आहंग और ख़तीबाना है। लेकिन कविता की अपनी लम्बी यात्रा में उन्होंने कई नवाचार किए और अपनी नवीनता साबित की। उन्होंने अपने अशआर में अवामी मुहावरे इस्तेमाल किए, नज़्म की छंदों में तबदीली की और काव्य शब्दावली में इस्तेमाल किया। उन्होंने उर्दू-फ़ारसी की क्लासिकी शायरी का गहरा अध्ययन किया था, इसीलिए जब नेहरू फ़ेलोशिप के तहत उनको उर्दू शायरी में इमेजरी की एक शब्दकोश संकलित करने का काम सौंपा गया तो उन्होंने सिर्फ़ अक्षर अलिफ़ के ज़ैल में 20 हज़ार से अधिक शब्दों और तराकीब को केवल कुछ शायरों के चुने हुए अशआर से जमा कर दिए। दुर्भाग्य से यह काम पूरा नहीं हो सका।

अली सरदार जाफ़री 29 नवंबर 1913 को उतर प्रदेश में ज़िला गोंडा के शहर बलरामपुर में पैदा हुए। उनके पूर्वज शीराज़ से हिज्रत कर के यहां आ बसे थे। उनके वालिद का नाम सय्यद जाफ़र तय्यार था। इस वजह से शीया घरानों की तरह उनके यहां भी मुहर्रम जोश-ओ-अक़ीदत से मनाया जाता था। जाफ़री का कहना है कि कलमा-ओ-तकबीर के बाद जो पहली आवाज़ उनके कानों ने सुनी वो मीर अनीस के मरसिए थे। पंद्रह-सोलह साल की उम्र में उन्होंने ख़ुद मरसिए लिखने शुरू कर दिए। उनकी आरंभिक शिक्षा पहले घर पर फिर बलरामपुर के अंग्रेज़ी स्कूल में हुई। लेकिन उन्हें पढ़ाई से ज़्यादा दिलचस्पी नहीं थी और कई साल बर्बाद करने के बाद उन्होंने 1933 में हाई स्कूल का इम्तिहान पास किया। इसके बाद उनको उच्च शिक्षा के लिए अलीगढ़ भेजा गया, लेकिन 1936 में उन्हें छात्र आंदोलन में हिस्सा लेने की वजह से यूनीवर्सिटी से निकाल दिया गया (बरसों बाद उसी यूनीवर्सिटी ने उनको डी.लिट की मानद उपाधि दी)। मजबूरन उन्होंने दिल्ली जाकर ऐंगलो अरबिक कॉलेज से बी.ए की डिग्री हासिल की। इसके बाद उन्होंने लखनऊ यूनीवर्सिटी में पहले एल.एल.बी में और फिर एम.ए इंग्लिश में दाख़िला लिया। उस वक़्त लखनऊ राजनीतिक गतिविधियों का केंद्र था। सज्जाद ज़हीर, डाक्टर अब्दुल अलीम, सिब्ते हसन और इसरार-उल-हक़ मजाज़ यहीं थे। सरदार जाफ़री भी उनके कंधे से कंधा मिलाकर सियासी सरगर्मीयों में शरीक हो गए, नतीजा ये था कि 1940 में उनको गिरफ़्तार कर लिया गया और वो 8 माह जेल में रहे। उसी ज़माने में सरदार जाफ़री मजाज़ और सिब्ते हसन ने मिलकर साहित्यिक पत्रिका “नया अदब” और एक साप्ताहिक अख़बार “पर्चम” निकाला। इसका पहला अंक 1939 में प्रकाशित हुआ था। 1942 में जब कम्युनिस्ट पार्टी से पाबंदी उठी और उसका केंद्र बंबई में स्थापित हुआ तो जाफ़री बंबई चले गए और पार्टी के मुखपत्र “क़ौमी जंग” के संपादक मंडल में शामिल हो गए।

सरदार जाफ़री ने पार्टी की सक्रिय सदस्य सुल्ताना मिनहाज से 1948 में शादी करली। बंबई में रहने के दौरान राजनीतिक गतिविधियों के लिए उन्हें दोबार गिरफ़्तार किया गया था। उन्होंने कभी कोई स्थायी नौकरी नहीं की। बीवी सोवीयत हाऊस आफ़ कल्चर में मुलाज़िम थीं। सरदार जाफ़री ने शुरू में साहिर और मजरूह और अख़तरुल ईमान की तरह फिल्मों के लिए गीत और पट कथा लिखने की कोशिश की लेकिन वो उसे आजीविका का साधन नहीं बना सके। 1960 के दशक में वे पार्टी की व्यावहारिक गतिविधियों से पीछे हट गए और उनकी दिलचस्पी पत्रकारिता और साहित्यिक गतिविधियों में बढ़ गई। उन्होंने प्रगतिशील साहित्य का मुखपत्र त्रय मासिक पत्रिका “गुफ़्तगु” निकाला जो 1965 तक प्रकाशित होता रहा। वो व्यवहारिक रूप से बहुत गतिशील और सक्रिय व्यक्ति थे। वो महाराष्ट्र उर्दू एकेडमी के डायरेक्टर, प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष और नेशनल बुक ट्रस्ट व अन्य संस्थाओं के मानद सदस्य थे।

उन्होंने मुहम्मद इक़बाल, संत कबीर, जंग-ए-आज़ादी के सौ साल और उर्दू के मुमताज़ शायरों के बारे में दस्तावेज़ी फिल्में बनाईं। उन्होंने दीवान-ए-ग़ालिब और मीर की ग़ज़लों का चयन शुद्ध और सुरुचिपूर्ण ढंग से उर्दू और देवनागरी में प्रकाशित किया। उनके कलाम के संग्रह ‘परवाज़’ (1944), ‘नई दुनिया को सलाम’ (1946), ‘ख़ून की लकीर’ (1949), ‘अमन का सितारा’ (1950), ‘एशिया जाग उठा’ (1964), ‘एक ख़्वाब और’ (1965) और ‘लहू पुकारता है’ (1978) प्रकाशित हुए। उनकी काव्य रचनाओं के अनुवाद दुनिया की विभिन्न भाषाओँ में किए गए और विद्वानों ने उनकी शायरी पर शोध कार्य किए। सरदार जाफ़री को उनकी साहित्यिक सेवाओं के लिए जो प्रशंसा मिली वो बहुत कम अदीबों के हिस्से में आती है। देश के सबसे बड़े साहित्यिक पुरस्कार ज्ञान पीठ के इलावा उनको साहित्य अकादेमी ऐवार्ड और सोवीयत लैंड नेहरू ऐवार्ड से नवाज़ा गया। देश की विभिन्न प्रादेशिक उर्दू एकेडमियों ने उन्हें ईनाम व सम्मान दिए। भारत सरकार ने भी उनको पदमश्री के ख़िताब से नवाज़ा।

आख़िरी उम्र में हृदय रोग के साथ साथ उनके दूसरे अंग भी जवाब दे गए थे। एक अगस्त 2000 को दिल का दौरा पड़ने से उनका देहांत हो गया और जुहू के सुन्नी क़ब्रिस्तान में उन्हें दफ़न किया गया।
सरदार जाफ़री की व्यक्तित्व और शायरी पर टिप्पणी करते हुए डाक्टर वहीद अख़तर ने कहा है, "जाफ़री के ज़ेहन की संरचना में शियावाद, ,मार्क्सवाद, इन्क़लाबी रूमानियत और आधुनिकता के साथ अन्य कारक भी सक्रिय रहे हैं। वो उन शायरों में हैं जिन्होंने शायर को आलोचक का भी सम्मान दिया, और उसे अकादमिक हलक़ों में विश्वसनीय बनाया। जाफ़री ने हर दौर की समस्याओं को, अपनी रूढ़िवादी प्रगतिशीलता के बावजूद, सृजनात्मक अनुभवों और उसकी अभिव्यक्ति से वंचित नहीं रखा। यही उनकी बड़ाई है और इसी में उनकी आधुनिक आध्यात्मिकता का रहस्य छुपा है।” 

 

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