दो शब्द
अ (अलिफ)
नक़्श, फ़र्यादी है किस की शोखि़्ए-तहरीर का
जुज़ क़ैस और कोई न आया बरूए-कार
कहते हो, न देंगे हम, दिल अगर पड़ा पाया
दिल मिरा सोज़े-निहाँ से बे मुहाबा जल गया
शौक़ हर रंग-रक़ीबे सरो-सामाँ निकला
धमकी में मर गया, जो न बाबे-नबर्द था
शुमारे-सुब्हा मरगूबे-बुते-मुश्किल-पसन्द आया
दहर में, नक़्शे-वफ़ा वज्हे-तसल्ली न हुआ
सिताइश्गर है ज़ाहिद, इस क़दर जिस बाग़े-रिज़्वाँ का
न होगा, यक बयाबाँ माँदगी से, ज़ौक़ कम मेरा
सरापा रेहने-इश्क़ो-नागुज़ीरे-उल्फ़ते-हस्ती
महरम नहीं है तू ही, नवाहाए-राज़ का
बज़्मे-शाहनशाह में, अश्आर का दफ़्तर खुला
शब कि बर्के-सोज़े-दिल से ज़हरए-अब्र आब था
नालाए-दिल में शब अन्दाज़े-असर नायाब था
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
बस-कि दुश्वार है, हर कम का आसाँ होना
शब खु़मारे-शौक़े-साक़ी रुस्तख़ेज़-अन्दाज़ा था
दोस्त, ग़मख़्वारी में मेरी, सई फ़रमावेंगे क्या
यह न थी हमारी कि़स्मत कि विसाले-यार होता
हवस को है नशाते-कार क्या क्या!
दरखु़रे-क़हरो-ग़ज़ब, जब कोई हम सा न हुआ
पये-नज़े-क़रम तोहफ़ा है शर्मे-नारसाई का
गर न अन्दोहे-शबे-फुर्क़त बयाँ हो जायगा
दर्द मिन्न्त कशे-दवा न हुआ
गिला है, शौक़ को, दिल में भी तंगिये-जा का
क़तरए-मय, बसकि हैरत से नफ़स-परवर हुआ
जब ब-तक़रीबे-सफ़र यार ने महमिल बाँधा
मैं, और बज़्मे-मय से यूँ तश्ना-काम जाऊँ!
घर हमारा, जो न रोते भी तो वीराँ होता
न था कुछ, तो ख़ुदा था, कुछ न होता, तो खुदा होता
यक ज़र्रए-ज़मीं नहीं बेकार बाग़ का
वह मिरी चीने-जबीं से ग़मे-पिन्हाँ समझा
फिर, मुझे दीदए-तर याद आया
हुई ताख़ीर, तो कुछ बाइसे-ताख़ीर भी था
लबे-ख़ुश्क दर-तश्नगी-मुर्दगाँ का
तू दोस्त किसी का भी, सितमगर न हुआ था
शब कि वो मजलिस-फ़रोज़े-ख़ल्वते-नामूस था
आईना देख, अपना सा मुँह ले के रह गए
अर्जे-नियाज़े-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
रश्क कहता है, कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़!
जि़क्र उस परीवश का, और फिर बयाँ अपना
सुर्म-ए-मुफ़्ते-नज़र हूँ, मिरी क़ीमत यह है
ग़ाफि़ल, ब-वहमे-नाज़, खुद आरा है, वर्ना याँ
जौर से बाज़ आए, पर बाज़ आएँ क्या।
लताफ़त बे कसाफ़त, जल्वा पैदा कर नहीं सकती
इशरते-क़त्रा है, दरिया में फ़ना हो जाना
ब (बा)
फिर हुआ वक़्त कि हो बाल-कुशा मौज-शराब
त (ता)
अफ़सोस कि दन्दाँ का किया रिज़्क़ फ़लक ने
रहा गर कोई ता क़यामत, सलामत
आमदे-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ारे-दोस्त
गुलशन में बन्दो-बस्त बरंगे-दिगर है आज
ज (जीम)
च (चा)
नफ़स न अन्जुमने-आर्जू से बाहर खेंच
हुस्न, ग़म्ज़े की कशाकश से छुटा मेरे बाद
द (दाल)
बला से हैं, जो यह पेशे-नज़र दरो-दीवार
रे (रा)
घर, बना लिया तिरे दर पर, कहे बग़ैर
क्यों जल गया न, ताबे-रुखे़-यार देख कर
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमते-मेहरे-दरख़्शाँ पर
है बस कि हर इक उनके इशारे में निशाँ और
सफ़ाए-हैरते-आईना, है सामाने-जंग आखिर
जुनूँ की दस्तगीरी किस से हो, गर हो न उर्यानी
लाजि़म था कि देखो मिरा रस्ता कोई दिन और
फ़ारिग़ मुझे न जारन, कि मानन्दे सुब्हो-मेहर
ज़ (ज़ा)
हरीफे़-मतलबे-मुश्किल नहीं फ़ुसूने-नियाज़
क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़
वुस्अते-सइये-करम देख कि सर-ता-सरे-ख़ाक
न गुले-नग़्मा हूँ न पर्दए-साज़
स (सीन)
मुज़्दा, ऐ ज़ौक़े-असीरी! कि नज़र आता है
श (शीन)
न लेवे, गर ख़से-जौहर तरावत सब्ज़ए-ख़त से
अ़ (एैन)
जादए-रह ख़ुर को वक़्तते-शाम है तारे-शुअ़ाअ़
रुखे़-निगार से है सोज़े-जाविदानिये-शम्अ़
फ़ (फ़ा)
बीमे-रक़ीब से नहीं करते विदाअे़-होश
क (काफ़)
ज़ख़्म पर छिड़के कहाँ तिफ़लाने-बे-पर्वा नमक
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
ग (गाफ़)
गर तुझको है यक़ीने-इजाबत, दुआ न माँग
है किस क़दर हलाके-फरेबे-वफ़ाए-गुल
ल (लाम)
ग़म नहीं होता है अज़ादो को बेश अज़यक नफ़स
म (मीम)
मुझको दयारे-ग़ैर में मारा वतन से दूर
बनाला हासिले-दिल-बस्तगी फ़राहम कर
न (नून)
वो फि़राक़ और वो विसाल कहाँ
लूँ वाम बख़्ते-खुफ़्ता से यक ख़ाबे-ख़ुश वले
की वफ़ा हमसे, तो ग़ैर उसको जफ़ा कहते हैं
आबरू कया ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
ओहदे से मदहे-नाज़ के बाहर न आ सका
मेहरबाँ होके बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
हमसे खुल जाओ ब वक़्ते-मय परस्ती एक दिन
हम पर, जफ़ा से तर्के-वफ़ा का गुमाँ नहीं
मानेअे-दश्त नवर्दी, कोई तदबीर नहीं
इश्क़ तासीर से नौमेद नहीं
बर्शगाले गिरयए-आशिक़ है, देखा चाहिये
जहाँ तेरा नक़्शे-क़दम देखते हैं
मिलती है खू़ए-यार से नार, इलतिहाब में
कल के लिए, कर आज न खि़स्सत शराब में
हैराँ हूँ, दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
जि़क्र मेरा, ब-बदी भी उसे मंज़ूर नहीं
नाला जुज़ हुस्ने-तलब, ऐ सितम ईजाद! नहीं
दोनों जहान दे के वो समझे, ये खुश रहा
क़यामत है कि सुन लैला का दश्ते-कै़स में आना
हो गई है ग़ैर की शीरीं बयानी कारगर
दिल लगा कर आ गया उनको भी तन्हा बैठना
ये हम, जो हिज्र में, दीवारो-दर को देखते हैं
नहीं कि मुझको क़यामत का एअ़तिक़ाद नहीं
तेरे तौसन को सबा बाँधते हैं
ज़माना सख़्त कम-आज़ार है बजाने असद
दाइम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं
सब कहाँ, कुछ लालओ-गुल में नुमायाँ हो गयी
दीवानगी से, दोश पे जुन्नार भी नहीं
नहीं है ज़ख़्म कोई, बखिये के दरख़ुर मेरे तन में
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
दिल ही तो है,न संगो-खि़श्त, दर्द से भर न आए क्यों 251
गुन्चए-नाशगुफ़ता को दूर से मत खिा कि यूँ
हसद से, दिल अगर अफ़सुर्दा है, गर्मे-तमाशा हो
व (वाव)
काबे में जा रहा, तो न दो ताना, क्या कहीं
वारस्ता उससे है कि मुहब्बत ही कयों न हो
क़फ़स में हूँ, गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को
धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीमतन के पाँव
वाँ उसको हौले-दिल है, तो याँ मैं हूँ शर्मसार
वाँ पहुँच कर जो ग़श आता पये-हम है हम को
लखनऊ आने का बाइस नहीं खुलता, यानी
क़त्आ
तुम जानो, तुम ग़ैर से जो रस्मो-राह हो
गई वो बात कि, हो गुफ़्तगू तो क्योंकर हो!
किसी को दे के दिल, कोई नवासंजे-फुग़ाँ क्यों हो
रहिये अब ऐसी जगह चल कर, जहाँ कोई न हो
अज़ मेहर तो बज़र्रा दिल-ओ-दिल है आइना
ह (हा)
है सब्ज़ा ज़ार हर दरो-दीवारे-ग़मकदा
य (या)
सद जल्वा रूबरू है, जो मिज़्गाँ उठाइये
मस्जिद के ज़ेरे-साया, ख़राबात चाहिए
बिसाते-इज्ज़, में था एक दिल, यक क़तरा खूँ वो भी
है बज़्में-बुताँ में सुखन आजु़र्दा लबों से
ता, हमको शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा
घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
ग़मे-दुनिया से, गर पाई भी फुर्सत सर उठाने की
हासिल से हाथ धो बैठे, ऐ आर्जू खि़रानी!
क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है
दर्द से मेरे, है तुझको बेक़रारी, हाय हाय
सर गशतगी में आलमे-हस्ती से यास है
गर ख़मुशी से फ़ायदा इख़फ़ा-ए-हाल है
तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो
एक जा हर्फे-वफ़ा लिक्खा था, सो भी मिट गया
पीनस में गुज़रते हैं जो कूचे से वो मेरे
मेरी हस्ती फ़ज़ाए-हैरत-आबादे-तमन्ना है
रहम कार ज़ालिम! कि क्या बूदे-चराग़े-कुश्ता है
चश्मे-ख़ूबाँ, ख़ामुशी में भी नवा परदाज़ है
इश्क़ मुझको नहीं, वहशत ही सही
है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे
जिन्दगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री, ग़ालिब!
उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किये
रफ़्तारे-उम्र क़त्अे-रहे-इजि़्तराब है
देखना कि़स्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाय है
गर्मे-फ़ार्याद रखा, शक्ले-निहाली ने मुझे
कारगाहे-हस्ती में लाला, दाग़ सामाँ है
उग रहा है दरो-दीवार से सब्ज़ा, ग़ालिब!
सादगी पर उसकी, मार जाने की हसरत दिल में है
दिल से, तेरी निगाह, जिगर तक उतर गई
तसकीं का हम न रोएँ, जो ज़ौके़-नज़र मिले
कोई दिन, गर जि़न्दगानी और है
कोई उम्मीद बर नहीं आती
दिले-नादाँ! तुझे हुआ क्या है
कहते तो हो तुम सब कि बुते-ग़ालिया-मू आय
फिर कुछ इक दिल को बेक़रारी है
जुनूँ तोहमत-कशे-तसकी न हो, गर शादमानी की
निकोहिश है सज़ा, फ़र्यादिये-बेदादे-दिलबर की
बे एअतदालियों से सुबुक सब में हम हुए
जो न नक़्दे-दाग़े-दिल की करे शोला पासबानी
ऐ ताज़ा-वारिदाने-बिसाते-हवाए-दिल!
क़त्आ
जुलमतकदे में मेरे शबे-ग़म का जोश है
आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है
हुजूमे-ग़म से, याँ तक सर-निगूनी मुझको हासिल है
पा बा दामन हो रहा हूँ बस कि मैं सहरा-नवर्द
जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे
हुस्ने मह, गरचे ब-हंगामे-कमाल, अच्छा है
न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही
अजब नशात से, जल्लाद के चले हैं हम, आगे
क़त्आ
शिक्वे के नाम से बे-मेहर ख़फ़ा होता है
ख़ामा मेरा, कि वो है बारबदे-बज़्मे-सुख़न
हर एक बात पे कहते हो तुम कि ’’तू क्या है?’’
मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें
गै़र लें महफि़ल में, बोसे-जाम के
फिर इस अन्दाज़ से बाहर आई
तग़ाफुल-दोस्त हूँ, मेरा दिमाग़े-इज्ज़ आली है
कब वो सुनता है कहानी मेरी
नक़्शे-नाज़े-बुते-तन्नाज़, ब- आगोशे-रक़ीब
गुलशन को तेरी सुहबत अज़ बस कि खु़श आई है
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो सकती हो तदबीर रफ़ूकी
सीमाब, पुश्ते-गर्मिये-आईना दे है, हम
है वस्ल, हिज्र, आलमे-तमकीनो-ज़ब्त में
चाहिए अच्छों को, जितना चाहिए
हर क़दम दूरिये-मन्जि़ल है नुमायाँ मुझसे
नुक्ता चीं है, ग़मे-दिल उसको सुनाए न बने
चाक की ख़्वाहिश, अगर वहशत ब-उरियानी करे
वो आके, ख़ाब में, तसकीने-इजि़्तराब तो दे
तपिश से मेरी, वक़्फ़े-कशमकश, हर तारे-बिस्तर है
खतर है, रिश्तए-उल्फ़त रगे-गर्दन न हो जाए
फ़र्याद की कोई लै नहीं है
हम रश्क को अपने भीश् गवारा नहीं करते
करे है बादा, तेरे लब से, कस्बे-रंगे-फ़रोग़
क्यों न हो चश्मे-बुताँ महवे-तग़ाफुल, क्यों न हो?
दिया है दिल अगर उसको, बशर है, क्या कहिए
देख कर दर-पर्दा गर्म- दामन-अफ़्शानी मुझे
याद है शादी में भी हंगामए-यारब, मुझे
हुज़ूरे-शाह में अहले-सुख़न की आज़माइश है
कभी नेकी भी उसके जी में, गर आ जाए है, मुझसे
जि़बस कि मश्के़-तमाशा, जुनूँ-अलामत है
लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा, दे मुझे
बाज़ीचए-अतफ़ाल है, दुनिया मेरे आगे
कहूँ जो हाल, तो कहते हो, ’’मुद्दआ कहिये’’
रोने से, और इश्क़ में बेबाक हो गए
नश्शा-हा शादाबे-रंगो-साज़हा मस्ते-तरब
अर्जे़-नाज़े-शोखिये-दन्दाँ, बराए-खन्दा है
हुस्ने-बे-पर्वा, ख़रीदारे-मताअे़-जलवा है
जब तक दहाने-ज़ख़्म न पैदा करे कोई
इब्ने-मरियम हुआ करे कोई
बहुत सही ग़मे-गेती शराब कम क्या है
बाग़, पाकर ख़फ़क़ानी यह डराता है मुझे
रौंदी हुई है कौकबए-शहरयार की
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि, हर ख्वाहिश पे दम निकले
कोह के हों बारे-खातिर, गर सदा हो जाइये
मस्ती बज़ौक़े-ग़फ़्लते-साक़ी हलाक है
लबे-ईसा की जुंबिश, करती है गहवारा जुम्बानी
आमदे-सैलाबे-तूफ़ाने-सदाए-आब है
हुजूमे-नाला, हैरत, आजिज़े-अर्जे़-यक-अफ़गाँ है
सियाही जैसे गिर जाए दमे-तहरीर काग़ज़ पर
हूँ मैं भी तमाशाइये नैरंगे-तमन्ना
ख़मोशियों में, तमाशा अदा निकलती है
जिस जा नसीम शाना-कशे-जुल्फे़-यार है
आईना क्यों न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
शबनम-ब-गुले-लाला, न ख़ाली ज़े-अदा है
मंजूर थी ये शक्ल, तजल्ली को नूर की
ग़म ख़ाने में बोदा दिले-नाकाम बहुत है
मुद्ददत हुई यारे को मेहमाँ किए हुए
नवेदे-अम्न है, बेदादे-दोस्त जाँ के लिए
साज़े-यक-ज़र्रा, नहीं फ़ैज़े-चमन से बेकार
क़साइद मनक़बत में
मतलअ़े-सानी
फैज़ से तेरे है, ऐ शम्अ़े-शबिस्ताने बहार!
मनक़बत में
दहर जुज़ जलवए-यकतइये-माशूक़ नहीं
हाँ, महे नौ! सुनें हम उसका नाम
कसीदा-3
ज़हरे-ग़म कर चुका था मेरा काम
गज़ल
फ़न्ने सूरतगरी में तेरा गुजऱ्
क़त्आ
सुब्ह दम दरवाज़ए-ख़ावर खुला
क़सीदा
तौसने-शाह में वो ख़ूबी है कि, जब
ग़ज़ल
कुन्ज में बैठा रहूँ यूँ पर खुला
क़त्आ
मसनवी दर सिफ़ते-अम्बह (आमों की तारीफ़ में)
हाँ दिले-दर्द मन्दे-ज़मज़मा साज़
क़तआत
ऐ शहंशाहे फ़लक-मन्ज़रे-बे-मिस्लों-नज़ीर
क़त्आ
गए वो दिन कि नादानिस्ता गै़रों की वफ़ादारी
कलकत्ते का जो जि़क्र किया तूने हमनशीं।
क़त्आ
है जो साहिब के कफ़े-दस्त पे ये चिकनी डली
दर मद्हे-डली
मंज़ूर है मुज़ारिशे-अहवाले-वाक़ई
न पूछ इसकी हक़ीक़त, हुजूरे-वाला ने
क़त्आ
बनाये मुसन्निफ़ (लेखक का व्याख्यान)
नुसरतुलमुल्क बहादुर! मुझे बतला कि मुझे
मद्ह (प्रशंसा)
है चराशम्बा आखि़रे-माहे-सफ़र, चलो
आखि़री चहारशंबा (बुधवार)
दर मद्हे-शाह (बादशाह की प्रशंसा में)
ऐ शाहे-जहाँगीर, जहाँ गीर, जहाँ-बख़्शे जहाँदार!
इफ़्तारे-सौम की कुछ, अगर दस्तगाह हो
क़त्आ
गुज़ारिशे-मुसन्निफ़ ब हुज़ूरे-शाह (बादशाह की सेवा में लेखक की याचिका)
ऐ शहंशाहे-आसमों औरंग!
सियह गलीम हूँ, लाजि़म है मेरा नाम ना ले
सहल था मुसहिल वले ये सख़्त मुश्किल आ पड़ी
ख़ुजस्ता अन्जुमने-तुए- मीरज़ा जाफ़र
गो एक बादशाह के सब ख़ानाज़ाद है
हुई जब मीरज़ा जाफ़र की शादी
रुबाइयात
शब जुल्फ़-ओ-रुख़े-अरक़-फि़शाँ का ग़म था
बाद अज़ इतमामे-बज़्मे-ईदे-अतफ़ाल
आतिशबाज़ी है जैसे शुग़्ले-अतफ़ाल
दिल था कि जो जाने-दर्दे-तमहीद सही
है ख़ल्क़े-हसद कि़माश लड़ने के लिए
दुख जी के पसन्द हो गया है, ग़ालिब!
दिल सख़्त निज़न्द हो गया है गोया
मुश्किल है जि़बस कलाम मेरा,ऐ दिल!
भेजी है जो मुझको, शाहे-जमजाह ने, दाल
हैं शह में सिफ़ाते-जुलजलाली बाहम
हक़, शह की बक़ा से, ख़ल्क़ को शाद करे
इस रिश्ते में लाख तार हों, बल्कि सिवा
कहते है कि अब वो मुर्दुम-आज़ार नहीं
हम गर्चे बने सालाम करने वाले
इन सेम के बीजों को कोई क्या जाने!
सामाने-खुरो-ख़ाब, कहाँ से लाऊँ?
सेहरा (बहादुरशाह ज़फ़र के बेटे जवाँ बख़्त की शादी के अवसर पर अप्रैल 1852 को लिखा गया)
ख़ुश हो, ऐ बख़्त! कि है आज तेरे सर सेहरा
चर्ख तक धूम है, कि धूम से आया सेहरा
सेहरा
सेहरा
हमनशीं तारे हैं, और चाँद शहाबुद्दीं ख़ाँ
दो शब्द
अ (अलिफ)
नक़्श, फ़र्यादी है किस की शोखि़्ए-तहरीर का
जुज़ क़ैस और कोई न आया बरूए-कार
कहते हो, न देंगे हम, दिल अगर पड़ा पाया
दिल मिरा सोज़े-निहाँ से बे मुहाबा जल गया
शौक़ हर रंग-रक़ीबे सरो-सामाँ निकला
धमकी में मर गया, जो न बाबे-नबर्द था
शुमारे-सुब्हा मरगूबे-बुते-मुश्किल-पसन्द आया
दहर में, नक़्शे-वफ़ा वज्हे-तसल्ली न हुआ
सिताइश्गर है ज़ाहिद, इस क़दर जिस बाग़े-रिज़्वाँ का
न होगा, यक बयाबाँ माँदगी से, ज़ौक़ कम मेरा
सरापा रेहने-इश्क़ो-नागुज़ीरे-उल्फ़ते-हस्ती
महरम नहीं है तू ही, नवाहाए-राज़ का
बज़्मे-शाहनशाह में, अश्आर का दफ़्तर खुला
शब कि बर्के-सोज़े-दिल से ज़हरए-अब्र आब था
नालाए-दिल में शब अन्दाज़े-असर नायाब था
एक एक क़तरे का मुझे देना पड़ा हिसाब
बस-कि दुश्वार है, हर कम का आसाँ होना
शब खु़मारे-शौक़े-साक़ी रुस्तख़ेज़-अन्दाज़ा था
दोस्त, ग़मख़्वारी में मेरी, सई फ़रमावेंगे क्या
यह न थी हमारी कि़स्मत कि विसाले-यार होता
हवस को है नशाते-कार क्या क्या!
दरखु़रे-क़हरो-ग़ज़ब, जब कोई हम सा न हुआ
पये-नज़े-क़रम तोहफ़ा है शर्मे-नारसाई का
गर न अन्दोहे-शबे-फुर्क़त बयाँ हो जायगा
दर्द मिन्न्त कशे-दवा न हुआ
गिला है, शौक़ को, दिल में भी तंगिये-जा का
क़तरए-मय, बसकि हैरत से नफ़स-परवर हुआ
जब ब-तक़रीबे-सफ़र यार ने महमिल बाँधा
मैं, और बज़्मे-मय से यूँ तश्ना-काम जाऊँ!
घर हमारा, जो न रोते भी तो वीराँ होता
न था कुछ, तो ख़ुदा था, कुछ न होता, तो खुदा होता
यक ज़र्रए-ज़मीं नहीं बेकार बाग़ का
वह मिरी चीने-जबीं से ग़मे-पिन्हाँ समझा
फिर, मुझे दीदए-तर याद आया
हुई ताख़ीर, तो कुछ बाइसे-ताख़ीर भी था
लबे-ख़ुश्क दर-तश्नगी-मुर्दगाँ का
तू दोस्त किसी का भी, सितमगर न हुआ था
शब कि वो मजलिस-फ़रोज़े-ख़ल्वते-नामूस था
आईना देख, अपना सा मुँह ले के रह गए
अर्जे-नियाज़े-इश्क़ के क़ाबिल नहीं रहा
रश्क कहता है, कि उस का ग़ैर से इख़्लास हैफ़!
जि़क्र उस परीवश का, और फिर बयाँ अपना
सुर्म-ए-मुफ़्ते-नज़र हूँ, मिरी क़ीमत यह है
ग़ाफि़ल, ब-वहमे-नाज़, खुद आरा है, वर्ना याँ
जौर से बाज़ आए, पर बाज़ आएँ क्या।
लताफ़त बे कसाफ़त, जल्वा पैदा कर नहीं सकती
इशरते-क़त्रा है, दरिया में फ़ना हो जाना
ब (बा)
फिर हुआ वक़्त कि हो बाल-कुशा मौज-शराब
त (ता)
अफ़सोस कि दन्दाँ का किया रिज़्क़ फ़लक ने
रहा गर कोई ता क़यामत, सलामत
आमदे-ख़त से हुआ है सर्द जो बाज़ारे-दोस्त
गुलशन में बन्दो-बस्त बरंगे-दिगर है आज
ज (जीम)
च (चा)
नफ़स न अन्जुमने-आर्जू से बाहर खेंच
हुस्न, ग़म्ज़े की कशाकश से छुटा मेरे बाद
द (दाल)
बला से हैं, जो यह पेशे-नज़र दरो-दीवार
रे (रा)
घर, बना लिया तिरे दर पर, कहे बग़ैर
क्यों जल गया न, ताबे-रुखे़-यार देख कर
लरज़ता है मिरा दिल ज़हमते-मेहरे-दरख़्शाँ पर
है बस कि हर इक उनके इशारे में निशाँ और
सफ़ाए-हैरते-आईना, है सामाने-जंग आखिर
जुनूँ की दस्तगीरी किस से हो, गर हो न उर्यानी
लाजि़म था कि देखो मिरा रस्ता कोई दिन और
फ़ारिग़ मुझे न जारन, कि मानन्दे सुब्हो-मेहर
ज़ (ज़ा)
हरीफे़-मतलबे-मुश्किल नहीं फ़ुसूने-नियाज़
क्यूँकर उस बुत से रखूँ जान अज़ीज़
वुस्अते-सइये-करम देख कि सर-ता-सरे-ख़ाक
न गुले-नग़्मा हूँ न पर्दए-साज़
स (सीन)
मुज़्दा, ऐ ज़ौक़े-असीरी! कि नज़र आता है
श (शीन)
न लेवे, गर ख़से-जौहर तरावत सब्ज़ए-ख़त से
अ़ (एैन)
जादए-रह ख़ुर को वक़्तते-शाम है तारे-शुअ़ाअ़
रुखे़-निगार से है सोज़े-जाविदानिये-शम्अ़
फ़ (फ़ा)
बीमे-रक़ीब से नहीं करते विदाअे़-होश
क (काफ़)
ज़ख़्म पर छिड़के कहाँ तिफ़लाने-बे-पर्वा नमक
आह को चाहिए इक उम्र असर होते तक
ग (गाफ़)
गर तुझको है यक़ीने-इजाबत, दुआ न माँग
है किस क़दर हलाके-फरेबे-वफ़ाए-गुल
ल (लाम)
ग़म नहीं होता है अज़ादो को बेश अज़यक नफ़स
म (मीम)
मुझको दयारे-ग़ैर में मारा वतन से दूर
बनाला हासिले-दिल-बस्तगी फ़राहम कर
न (नून)
वो फि़राक़ और वो विसाल कहाँ
लूँ वाम बख़्ते-खुफ़्ता से यक ख़ाबे-ख़ुश वले
की वफ़ा हमसे, तो ग़ैर उसको जफ़ा कहते हैं
आबरू कया ख़ाक उस गुल की कि गुलशन में नहीं
ओहदे से मदहे-नाज़ के बाहर न आ सका
मेहरबाँ होके बुला लो मुझे चाहो जिस वक़्त
हमसे खुल जाओ ब वक़्ते-मय परस्ती एक दिन
हम पर, जफ़ा से तर्के-वफ़ा का गुमाँ नहीं
मानेअे-दश्त नवर्दी, कोई तदबीर नहीं
इश्क़ तासीर से नौमेद नहीं
बर्शगाले गिरयए-आशिक़ है, देखा चाहिये
जहाँ तेरा नक़्शे-क़दम देखते हैं
मिलती है खू़ए-यार से नार, इलतिहाब में
कल के लिए, कर आज न खि़स्सत शराब में
हैराँ हूँ, दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
जि़क्र मेरा, ब-बदी भी उसे मंज़ूर नहीं
नाला जुज़ हुस्ने-तलब, ऐ सितम ईजाद! नहीं
दोनों जहान दे के वो समझे, ये खुश रहा
क़यामत है कि सुन लैला का दश्ते-कै़स में आना
हो गई है ग़ैर की शीरीं बयानी कारगर
दिल लगा कर आ गया उनको भी तन्हा बैठना
ये हम, जो हिज्र में, दीवारो-दर को देखते हैं
नहीं कि मुझको क़यामत का एअ़तिक़ाद नहीं
तेरे तौसन को सबा बाँधते हैं
ज़माना सख़्त कम-आज़ार है बजाने असद
दाइम पड़ा हुआ तेरे दर पर नहीं हूँ मैं
सब कहाँ, कुछ लालओ-गुल में नुमायाँ हो गयी
दीवानगी से, दोश पे जुन्नार भी नहीं
नहीं है ज़ख़्म कोई, बखिये के दरख़ुर मेरे तन में
मज़े जहान के अपनी नज़र में ख़ाक नहीं
दिल ही तो है,न संगो-खि़श्त, दर्द से भर न आए क्यों 251
गुन्चए-नाशगुफ़ता को दूर से मत खिा कि यूँ
हसद से, दिल अगर अफ़सुर्दा है, गर्मे-तमाशा हो
व (वाव)
काबे में जा रहा, तो न दो ताना, क्या कहीं
वारस्ता उससे है कि मुहब्बत ही कयों न हो
क़फ़स में हूँ, गर अच्छा भी न जानें मेरे शेवन को
धोता हूँ जब मैं पीने को उस सीमतन के पाँव
वाँ उसको हौले-दिल है, तो याँ मैं हूँ शर्मसार
वाँ पहुँच कर जो ग़श आता पये-हम है हम को
लखनऊ आने का बाइस नहीं खुलता, यानी
क़त्आ
तुम जानो, तुम ग़ैर से जो रस्मो-राह हो
गई वो बात कि, हो गुफ़्तगू तो क्योंकर हो!
किसी को दे के दिल, कोई नवासंजे-फुग़ाँ क्यों हो
रहिये अब ऐसी जगह चल कर, जहाँ कोई न हो
अज़ मेहर तो बज़र्रा दिल-ओ-दिल है आइना
ह (हा)
है सब्ज़ा ज़ार हर दरो-दीवारे-ग़मकदा
य (या)
सद जल्वा रूबरू है, जो मिज़्गाँ उठाइये
मस्जिद के ज़ेरे-साया, ख़राबात चाहिए
बिसाते-इज्ज़, में था एक दिल, यक क़तरा खूँ वो भी
है बज़्में-बुताँ में सुखन आजु़र्दा लबों से
ता, हमको शिकायत की भी बाक़ी न रहे जा
घर में था क्या कि तिरा ग़म उसे ग़ारत करता
ग़मे-दुनिया से, गर पाई भी फुर्सत सर उठाने की
हासिल से हाथ धो बैठे, ऐ आर्जू खि़रानी!
क्या तंग हम सितम-ज़दगाँ का जहान है
दर्द से मेरे, है तुझको बेक़रारी, हाय हाय
सर गशतगी में आलमे-हस्ती से यास है
गर ख़मुशी से फ़ायदा इख़फ़ा-ए-हाल है
तुम अपने शिकवे की बातें न खोद खोद के पूछो
एक जा हर्फे-वफ़ा लिक्खा था, सो भी मिट गया
पीनस में गुज़रते हैं जो कूचे से वो मेरे
मेरी हस्ती फ़ज़ाए-हैरत-आबादे-तमन्ना है
रहम कार ज़ालिम! कि क्या बूदे-चराग़े-कुश्ता है
चश्मे-ख़ूबाँ, ख़ामुशी में भी नवा परदाज़ है
इश्क़ मुझको नहीं, वहशत ही सही
है आरमीदगी में निकोहिश बजा मुझे
जिन्दगी अपनी जब इस शक्ल से गुज़री, ग़ालिब!
उस बज़्म में मुझे नहीं बनती हया किये
रफ़्तारे-उम्र क़त्अे-रहे-इजि़्तराब है
देखना कि़स्मत कि आप अपने पे रश्क आ जाय है
गर्मे-फ़ार्याद रखा, शक्ले-निहाली ने मुझे
कारगाहे-हस्ती में लाला, दाग़ सामाँ है
उग रहा है दरो-दीवार से सब्ज़ा, ग़ालिब!
सादगी पर उसकी, मार जाने की हसरत दिल में है
दिल से, तेरी निगाह, जिगर तक उतर गई
तसकीं का हम न रोएँ, जो ज़ौके़-नज़र मिले
कोई दिन, गर जि़न्दगानी और है
कोई उम्मीद बर नहीं आती
दिले-नादाँ! तुझे हुआ क्या है
कहते तो हो तुम सब कि बुते-ग़ालिया-मू आय
फिर कुछ इक दिल को बेक़रारी है
जुनूँ तोहमत-कशे-तसकी न हो, गर शादमानी की
निकोहिश है सज़ा, फ़र्यादिये-बेदादे-दिलबर की
बे एअतदालियों से सुबुक सब में हम हुए
जो न नक़्दे-दाग़े-दिल की करे शोला पासबानी
ऐ ताज़ा-वारिदाने-बिसाते-हवाए-दिल!
क़त्आ
जुलमतकदे में मेरे शबे-ग़म का जोश है
आ कि मेरी जान को क़रार नहीं है
हुजूमे-ग़म से, याँ तक सर-निगूनी मुझको हासिल है
पा बा दामन हो रहा हूँ बस कि मैं सहरा-नवर्द
जिस बज़्म में तू नाज़ से गुफ़्तार में आवे
हुस्ने मह, गरचे ब-हंगामे-कमाल, अच्छा है
न हुई गर मेरे मरने से तसल्ली न सही
अजब नशात से, जल्लाद के चले हैं हम, आगे
क़त्आ
शिक्वे के नाम से बे-मेहर ख़फ़ा होता है
ख़ामा मेरा, कि वो है बारबदे-बज़्मे-सुख़न
हर एक बात पे कहते हो तुम कि ’’तू क्या है?’’
मैं उन्हें छेड़ूँ और कुछ न कहें
गै़र लें महफि़ल में, बोसे-जाम के
फिर इस अन्दाज़ से बाहर आई
तग़ाफुल-दोस्त हूँ, मेरा दिमाग़े-इज्ज़ आली है
कब वो सुनता है कहानी मेरी
नक़्शे-नाज़े-बुते-तन्नाज़, ब- आगोशे-रक़ीब
गुलशन को तेरी सुहबत अज़ बस कि खु़श आई है
जिस ज़ख़्म की हो सकती हो सकती हो तदबीर रफ़ूकी
सीमाब, पुश्ते-गर्मिये-आईना दे है, हम
है वस्ल, हिज्र, आलमे-तमकीनो-ज़ब्त में
चाहिए अच्छों को, जितना चाहिए
हर क़दम दूरिये-मन्जि़ल है नुमायाँ मुझसे
नुक्ता चीं है, ग़मे-दिल उसको सुनाए न बने
चाक की ख़्वाहिश, अगर वहशत ब-उरियानी करे
वो आके, ख़ाब में, तसकीने-इजि़्तराब तो दे
तपिश से मेरी, वक़्फ़े-कशमकश, हर तारे-बिस्तर है
खतर है, रिश्तए-उल्फ़त रगे-गर्दन न हो जाए
फ़र्याद की कोई लै नहीं है
हम रश्क को अपने भीश् गवारा नहीं करते
करे है बादा, तेरे लब से, कस्बे-रंगे-फ़रोग़
क्यों न हो चश्मे-बुताँ महवे-तग़ाफुल, क्यों न हो?
दिया है दिल अगर उसको, बशर है, क्या कहिए
देख कर दर-पर्दा गर्म- दामन-अफ़्शानी मुझे
याद है शादी में भी हंगामए-यारब, मुझे
हुज़ूरे-शाह में अहले-सुख़न की आज़माइश है
कभी नेकी भी उसके जी में, गर आ जाए है, मुझसे
जि़बस कि मश्के़-तमाशा, जुनूँ-अलामत है
लाग़र इतना हूँ कि गर तू बज़्म में जा, दे मुझे
बाज़ीचए-अतफ़ाल है, दुनिया मेरे आगे
कहूँ जो हाल, तो कहते हो, ’’मुद्दआ कहिये’’
रोने से, और इश्क़ में बेबाक हो गए
नश्शा-हा शादाबे-रंगो-साज़हा मस्ते-तरब
अर्जे़-नाज़े-शोखिये-दन्दाँ, बराए-खन्दा है
हुस्ने-बे-पर्वा, ख़रीदारे-मताअे़-जलवा है
जब तक दहाने-ज़ख़्म न पैदा करे कोई
इब्ने-मरियम हुआ करे कोई
बहुत सही ग़मे-गेती शराब कम क्या है
बाग़, पाकर ख़फ़क़ानी यह डराता है मुझे
रौंदी हुई है कौकबए-शहरयार की
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी कि, हर ख्वाहिश पे दम निकले
कोह के हों बारे-खातिर, गर सदा हो जाइये
मस्ती बज़ौक़े-ग़फ़्लते-साक़ी हलाक है
लबे-ईसा की जुंबिश, करती है गहवारा जुम्बानी
आमदे-सैलाबे-तूफ़ाने-सदाए-आब है
हुजूमे-नाला, हैरत, आजिज़े-अर्जे़-यक-अफ़गाँ है
सियाही जैसे गिर जाए दमे-तहरीर काग़ज़ पर
हूँ मैं भी तमाशाइये नैरंगे-तमन्ना
ख़मोशियों में, तमाशा अदा निकलती है
जिस जा नसीम शाना-कशे-जुल्फे़-यार है
आईना क्यों न दूँ कि तमाशा कहें जिसे
शबनम-ब-गुले-लाला, न ख़ाली ज़े-अदा है
मंजूर थी ये शक्ल, तजल्ली को नूर की
ग़म ख़ाने में बोदा दिले-नाकाम बहुत है
मुद्ददत हुई यारे को मेहमाँ किए हुए
नवेदे-अम्न है, बेदादे-दोस्त जाँ के लिए
साज़े-यक-ज़र्रा, नहीं फ़ैज़े-चमन से बेकार
क़साइद मनक़बत में
मतलअ़े-सानी
फैज़ से तेरे है, ऐ शम्अ़े-शबिस्ताने बहार!
मनक़बत में
दहर जुज़ जलवए-यकतइये-माशूक़ नहीं
हाँ, महे नौ! सुनें हम उसका नाम
कसीदा-3
ज़हरे-ग़म कर चुका था मेरा काम
गज़ल
फ़न्ने सूरतगरी में तेरा गुजऱ्
क़त्आ
सुब्ह दम दरवाज़ए-ख़ावर खुला
क़सीदा
तौसने-शाह में वो ख़ूबी है कि, जब
ग़ज़ल
कुन्ज में बैठा रहूँ यूँ पर खुला
क़त्आ
मसनवी दर सिफ़ते-अम्बह (आमों की तारीफ़ में)
हाँ दिले-दर्द मन्दे-ज़मज़मा साज़
क़तआत
ऐ शहंशाहे फ़लक-मन्ज़रे-बे-मिस्लों-नज़ीर
क़त्आ
गए वो दिन कि नादानिस्ता गै़रों की वफ़ादारी
कलकत्ते का जो जि़क्र किया तूने हमनशीं।
क़त्आ
है जो साहिब के कफ़े-दस्त पे ये चिकनी डली
दर मद्हे-डली
मंज़ूर है मुज़ारिशे-अहवाले-वाक़ई
न पूछ इसकी हक़ीक़त, हुजूरे-वाला ने
क़त्आ
बनाये मुसन्निफ़ (लेखक का व्याख्यान)
नुसरतुलमुल्क बहादुर! मुझे बतला कि मुझे
मद्ह (प्रशंसा)
है चराशम्बा आखि़रे-माहे-सफ़र, चलो
आखि़री चहारशंबा (बुधवार)
दर मद्हे-शाह (बादशाह की प्रशंसा में)
ऐ शाहे-जहाँगीर, जहाँ गीर, जहाँ-बख़्शे जहाँदार!
इफ़्तारे-सौम की कुछ, अगर दस्तगाह हो
क़त्आ
गुज़ारिशे-मुसन्निफ़ ब हुज़ूरे-शाह (बादशाह की सेवा में लेखक की याचिका)
ऐ शहंशाहे-आसमों औरंग!
सियह गलीम हूँ, लाजि़म है मेरा नाम ना ले
सहल था मुसहिल वले ये सख़्त मुश्किल आ पड़ी
ख़ुजस्ता अन्जुमने-तुए- मीरज़ा जाफ़र
गो एक बादशाह के सब ख़ानाज़ाद है
हुई जब मीरज़ा जाफ़र की शादी
रुबाइयात
शब जुल्फ़-ओ-रुख़े-अरक़-फि़शाँ का ग़म था
बाद अज़ इतमामे-बज़्मे-ईदे-अतफ़ाल
आतिशबाज़ी है जैसे शुग़्ले-अतफ़ाल
दिल था कि जो जाने-दर्दे-तमहीद सही
है ख़ल्क़े-हसद कि़माश लड़ने के लिए
दुख जी के पसन्द हो गया है, ग़ालिब!
दिल सख़्त निज़न्द हो गया है गोया
मुश्किल है जि़बस कलाम मेरा,ऐ दिल!
भेजी है जो मुझको, शाहे-जमजाह ने, दाल
हैं शह में सिफ़ाते-जुलजलाली बाहम
हक़, शह की बक़ा से, ख़ल्क़ को शाद करे
इस रिश्ते में लाख तार हों, बल्कि सिवा
कहते है कि अब वो मुर्दुम-आज़ार नहीं
हम गर्चे बने सालाम करने वाले
इन सेम के बीजों को कोई क्या जाने!
सामाने-खुरो-ख़ाब, कहाँ से लाऊँ?
सेहरा (बहादुरशाह ज़फ़र के बेटे जवाँ बख़्त की शादी के अवसर पर अप्रैल 1852 को लिखा गया)
ख़ुश हो, ऐ बख़्त! कि है आज तेरे सर सेहरा
चर्ख तक धूम है, कि धूम से आया सेहरा
सेहरा
सेहरा
हमनशीं तारे हैं, और चाँद शहाबुद्दीं ख़ाँ
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