سرورق
میر کی وصیت
मीर की वसीयत
भूमिका
دیباچہ
یک بیاباں برنگ صوت جرس
यक बयाबाँ बरंग-ए-सौत-ए-जरस
उस मिरे नौबावः-ए-गुल्ज़ार-ए-ख़ूबी के हुजूर
اس مرے نوبادۂ گلزار خوبی کے حضور
آکے سجادہ نشیں قیس ہوا میرے بعد
आ के सज्जादः नशीं क़ैस हुआ मेरे बाद
रहे उमर भर देखते, सादगाँ को
मौसम-ए-अब्र हो, सुबू भी हो
ज़मीमः
शब वंह जो पिये शराब, निकला
موسم ابر ہو، سبو بھی ہو
شب وہ جو پیئے شراب، نکلا
ضمیمہ
رہے عمر بھر دیکھتے سادگاں کو
जीते रहे तो उस से हम आगोश होंगे मीर
जो जो जुल्म किये हैं तुमने सो सो हमने उठाये हैं
इस बेकसी से कौन जाहाँ में मुआ, कि मैं
جو جو ظلم کیے ہیں تم نے سو سو ہم نے اٹھائے ہیں
اس بیکسی سے کون جہاں میں ہوا، کہ میں
جیتے رہے تو اس سے ہم آغوش ہونگے میر
ना दिमाग़ है कि किसू से हम, करें गुफ्तुगू ग़म-ए-यार में
इश्क में अय हमरियहाँ, कुछ तो किया चाहिये
عشق میں اے ہمریاں،کچھ تو کیا چاہیے
نہ دماغ ہے کہ کسو سے ہم، کریں گفتگو غم یار میں
लिखावट और उच्चारण का नक़्श्ः
हर जी हयात का, है सबब जो हयात का
ہر ذی حیات کا، ہے سبب جو حیات کا
मेरे मालिक ने, मिरे हक़ में, यह एहसान किया
हंगामः गर्मकुन, जो किदल-ए-नासबूर था
میرے مالک نے ، مرے حق میں، یہ احسان کیا
ہنگامہ گرم کن، جو دل ناصبور تھا
कल पाँव एक कासः-ए-सर पर जो आगया
क्या मैं भी परीशानि-ए-ख़ातिर से क़रीं था
کل پاؤں ایک کاسۂ سر پر جو آگیا
کیا میں بھی پریشانیٔ خاطر سےر قریں تھا
लुत्फ़ अगार यह कै धुताँ, संदल-ए-पेशानी का
لطف اگر یہ ہے بتاں، صندل پیشانی کا
कहा मैं ने, कितना है गुल का सबात
इस अहद में इलाही, महब्बत को क्या हुआ
کہاں میں نے، کتنا ہے گل کا ثبات
اس عہد میں الٰہی، محبت کو کیا ہوا
उल्टी होगईं सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया
الٹی ہوگئیں سب تدبیریں، کچھ نہ دوانے کام کیا
चमन में गुल ने, जो कल दा’वः-ए-जमाल किया
چمن میں گل نے، جو کل دعوئے جمال کیا
मुनइम ने, बिना जुल्म की रख, घर तो बनाया
ता गोर के ऊपर, वह गुल अंदाम न आया
تا گور کے اوپر، وہ گل اندام نہ آیا
منعم نے، بنا ظلم کی رکھ، گھر تو بنایا
जिस सर को गुरूर आज है, याँ ताज्वरी का
جس سر کو غرور آج ہے، یاں تاجوری کا
उलझाव पड़ गया, जो हमें उसके इश्क में
मुँह तका ही करे है, जिस तिस का
الجھاؤ پڑگیا، جو ہمیں اس کے عشق میں
منہ تکاہی کرے ہے، جس تس کا
दिल बहम पहुँचा बदन में, तब से सारा तन जला
बेताब जी को देख, दिल को कबाब देखा
بیتاب جی کو دیکھا، دل کو کباب دیکھا
دل بہم پہونچا بدن میں، تب سے سارا تن جلا
जब जुनूँ से हमें तवस्सुल था
جب جنوں سے ہمیں توسل تھا
सुनियो जब वह कभू सवार हुआ
मर रहते जो गुल बिन, तो सारा यह ख़लल जाता
शायद किसू के दिल को लगी उस गली में चोट
شاید کسو کے دلکو لگی اس گلی میں چوٹ
مر رہتے جو گل بن تو سارا یہ خلل جاتا
سنیو جب وہ کبھو سوار ہوا
शहर-ए-दिल एक मुद्दत, उजड़ा बसा, रामों में
दी आग रंग-ए-गुल ने, वाँ अय सबा चमन को
دی آگ رنگ گل نے، واں اے صبا چمن کو
شہر دل ایک مدت، اجڑا بسا، غموں میں
उगते थे दस्त-ए-बुलबुल-ओ-दामान-ए-गुल बहम
हमारे आगे, तिरा जब किसू ने नाम लिया
ہمارے آگے، ترا جب کسو نے نام لیا
اگتے تھے دست بلبل ودامان گل بہم
गुल को, महबूब हम कि़यास किया
क्या तरह है, आश्ना गाहे, गहे नाआश्ना
کیا طرح ہے، آشنا گاہے، گہے نا آشنا
گل کو، محبوب ہم قیاس کیا
देगी न चैन लज्जत-ए-जख़्म, उस शिकार को
दाग़-ए-फि़राक़-आ-हसरत-ए-वस्ल,आरजू-ए-शौक़
है उस के हुऱ्-ए-जे़र-ए-लबी का सभें में जि़क्र
गुद्द’आ जो है, सो वह पाया नहीं जाता कहीं
ہے اس کے حرف زیر لبی کا، سبھوں میں ذکر
داغ فراق وحسرت وصل، آرزوئے شوق
مدعا جو ہے، سو وہ پایا نہیں جاتا کہیں
دے گی نہ چین لذت زخم، اس شکار کو
निकली थी तेरा, बेदरेग़ उस की
हम ख़स्तः दिल हैं, तुझ से भी नाजुक मिज़ाज तर
सुना है हाल, तिरे कुशतगँ बिचारों का
سنا ہے حال، ترے کشتگاں بچاروں کا
نکلی تھی تیغ بے دریغ اس کی
ہم خستہ دل ہیں، تجھ سے بھی نازک مزاج تر
सद ख़ानुमाँ ख़राब है, हर हर क़दम प दफ़्न
صد خانما خراب ہیں، ہر ہر قدم پہ دفن
दिल से शैक़-ए-रुख़-ए-निकून गया
यह तुम्हारी, इन दिनों दोस्तोँ मिशः जिस के राम में है ख़ूँचकाँ
जिन बलाओं को मीर सुनते थे
یہ تمہاری ان دنوں دوستاں، مژہ جسکے غم میں ہے خو نچکاں
جن بلاؤں کو میر سنتے تھے
دل سے شوق رخ نکو نہ گیا
मेहर की तुझ से तवक़्क़ोअ थी सितमगर निकला
مہر کی تجھ سے توقع تھی، ستمگر نکلا
फिर नोहःगरी कहाँ, जहाँ में
उस का खिराम देख के जाया न जायगा
اس کا خرام دیکھ کے جایا نہ جائے گا
پھر نوحہ گری کہاں، جہاں میں
दिल की वीरीनी का क्या मज़कूर है
उनने तो मुझ को झूँटे भ पूछा न एक बार
ان نے تو مجھ کو جھونٹے بھی پوچھا نہ ایک بار
اتنی گذری جو ترے ہجر میں، سو اس کے سبب
دل کی ویرانی کا کیا مذکور ہے
चश्म-ए-खूँबस्तः से कल रात लहू फिर टपका
अय दोस्त, कोई मुझ सा, रुस्वा न हुआ होगा
हक़ ढूँडने का, आप को आता नहीं वर्नः
چشم خوں بستہ سے کل رات لہو پھر ٹپکا
اے دوست، کوئی مجھ سا، رسوا نہ ہوا ہوگا
حق ڈھونڈنے کا، آپ کو آتا نہیں ورنہ
आये बरंग-ए-अब्र अरक़नाक तुम यहाँ
दुश्मनी हम से की, ज़माने ने
آئے برنگ ابر عرق ناک تم یہاں
دشمنی ہم سے کی، زمانے نے
जीते जी, कूचः-ए-दिलदार से, जाया न गया
नुमूद कर के वहीं,बहर-ए-राम में बैठ गया
कभू न आँखों में आया वह शोख़ ख़्वाब की तरह
کبھو نہ آنکھوں میں آیا وہ شوخ خواب کی طرح
نمود کرکے وہیں، بحر غم میں بیٹھ گیا
جیتے جی، کوچۂ دلدار سے، جایا نہ گیا
गये जूँ शम’अ, उस मज्लिस में जलने
गलियों में अब तलक तो, मज़्कूर है हमारा
گلیوں میں اب تلک تو، مذکور ہے ہمارا
گئے جوں شمع، اس مجلس میں جلنے
सहर गह ईद में, दौर-ए-सुबू था
سحر گہ عید میں، دور سبو تھا
राह-ए-दूर-ए-इश्क़ से, रोता है क्या
पंजः-ए-गुल की तरह, दीवानगी में हाथ को
राम्ज़े ने उसके, चोरी में दिल की, हुनर किया
غمزے نے اس کے، چوری میں دل کی، ہنر کیا
راہ دور عشق سے، روتا ہے کیا
پنجۂ گل کی طرح، دیوانگی میں ہاتھ کو
कुछ न देखा फिर, बजुज़ इक शो’लः-ए-पुर पेच-ओ-ताब
کچھ نہ دیکھا پھر، بجز اک شعلہ پر پیچ وتاب
हाथा ेस तेरे अगर, मैं नातवाँ मारा गया
दिल से रुख्सत हुई कोई ख़्वाहिश
ہاتھ سے تیرے اگر، میں ناتواں مارا گیا
دل سے رخصت ہوئی کوئی خواہش
क़द्र रखती न थी माता-ए-दिल
मैं ने तो सर दिया, मगर जल्लाद
रह-ए-तलब में गिरे होते सर के भल हम भी
میں نے تو سر دیا، مگر جلّاد
قدر رکھتی نہ تھی متاع دل
رہ طلب میں گرے ہوتے سر کے بھل ہم بھی
सब्ज़ान-ए-ताजः रेा की जहाँ जल्वः गाह थी
سبزان نازہ رو کی جہاں جلوہ گاہ تھی
यह एैश गह नहीं है, याँ रंग और कुछ है
शोहरः-ए-आलम इसी युम्न-ए-महब्बत ने किया
न हो क्यों रौरत-ए-गुल्ज़ार वह कूचः, ख़ुदा जाने
یہ عیش گہ نہیں ہے، یاں رنگ اور کچھ ہے
نہ ہوں کیوں غیرت گلزار وہ کوچہ، خدا جانے
شہرۂ عالم اسی یمنِ محبت نے کیا
पैग़ाम-ए-राम जिगर का, गुल्ज़ार तक न पहुँचा
پیغام غم جگر کا گلزار تک نہ پہونچا
दैर-औ-हरम से गुज़रे, अब दिल है घर हमारा
मा’मूर शराबों से,काबाबों स, है सब दैर
دیر و حرم سے گذرے، اب دل ہے گھر ہمارا
معمور شرابوں سے، کبابوں سے، ہے سب دیر
मज्लिस-ए-आफ़ाक़ में पर्वानः साँ
दिल न पहुँचा, गोशः-ए-दामाँ तलक
सरसरी तुम जहान से गुज़रे
دل نہ پہونچا گوشۂ داماں تلک
مجلس آفاق میں پروانہ ساں
سر سری تم جہان سے گذرے
बे ज़री का न कर गिः गा़फि़ल
بے زری کا نہ کر گلہ، غافل
कब मुसीबत ज़दः दिल, माइल-ए-आज़ार न था
पा-ए-पुर आब्लः से, मैं गुमशदः गया हूँ
پائے پرآبلہ سے، میں گم شدہ گیا ہوں
کب مصیبت زدہ دل، مائل آزار نہ تھا
कल चमन मं, मुल-ओ-समन देखा
जहाँ को फि़तने से ख़ाली कभू नहीं पाया
جہاں کو فتنے سے خالی کبھو نہیں پایا
کل چمن میں، گل و سمن دیکھا
आये अगर बहार, तो अब हम को क्या सबा
क्या दिन थे वे, कि याँ भी दिल-ए-आरमीदः था
सर-ए-दौर-ए-फ़लक भी देखूत्र अपने रू बरू टूटा
آئے اگر بہار، تو اب ہم کو کیا، صبا
کیا دن تھے وے، کہ یاں بھی دل آرمیدہ تھا
سر دور فلک بھی دیکھوں، اپنے رو برو ٹوٹا
ग़ालत है इश्क़ में, अय बुल्हवस, अन्देशः राहत का
कैसा चमन, कि हम से असीरों को मन’अ है
غلط ہے عشق میں، اے بو الہوس، اندیشہ راحت کا
کیسا چمن، کہ ہم سے اسیروں کو منع ہے
दिल इश्क का, हमेशः हरीफ़-ए-नबर्द था
मुग़ाँ, उुझ मस्त बिन, फिर ख़न्दः-ए-साग़ार न होवेगा
याँ बुलबुल औश्र गुल पे तू इबरत से आँचा खोल
دل عشق کا، ہمیشہ حریف نبرد تھا
یاں بلبل اور گل پہ تو عبرت سے آنکھ کھول
مغاں، مجھ مست بن، پھر خندۂ ساغر نہ ہووے گا
आाह की मैं दिल-ए-हैरान-ओ-ख़फ़ा को सौंपा
इत्र आगई हे बाद-ए-सुबह मगर
खुदा को काम तो सौपे ळें मैने सब, लेकिन
عطر آگیں ہے باد صبح، مگر
خدا کو کام تو سونپے ہیں میں نے سب، لیکن
آہ کی میں، دل حیران و خفا کو سونپا
खून कम कर अब, कि कुश्तों के तो पुश्ते लग गये
जल्बः उसी का सब, गुल्शन मं ज़माने के
आह-ए-सहर ने, सोजि़श-ए-दिल को मिटा दिया
آہ سحر نے، سوزش دل کو مٹا دیا
جلوہ ہے اسی کا سب، گلشن میں زمانے کے
خون کم کر اب، کہ کشتوں کے تو پشتے لگ گئے
یار عجب طرح نگہ کر گیا
कुछ गुल से हैं शिगुफ्तः, कुछ सर्व से हैं क़द कश
लज़्ज़त से नहीं ख़ली, जानेां का खपा जाना
रफ़्तार-ओ-तौर-ओ-तजऱ्-ओ-रविश का, यह ढब है क्या
کچھ گل سے ہیں شگفتہ، کچھ سروسے ہیں قد کش
لذت سے نہیں خالی، جانوں کا کھپا جانا
رفتار وطور وطرز و روش کا، یہ ڈھب ہے کیا
अब भी दिमाग़-ए-रफ़्तः हमारा, है अर्श पर
आलम की सैर मीर की सोहबत में हो होगई
समझे थे हम तो मीर आशिक़ उसी घड़ी
اب بھی دماغ رفتہ ہمارا، ہے عرش پر
سمجھے تھے ہم تو میر کو عاشق اسی گھڑی
عالم کی سیر میر کی صحبت میں ہوگئی
नज़र में तौश्र रख, उस कम नुमा का
देख आरसी को, यार हुआ महब नाज़ का
دیکھ آرسی کو، یار ہوا محو ناز کا
نظر میں طور رکھ اس کم نما کا
यह रविश है दिलबरों की, न किसू से साज़ करना
रह मीर ग़रीबानः, जाता थ चला रोता
नीमचः हाथ में, मस्ती से लहू सी आँखें
یہ روش ہے دلبروں کی، نہ کسو سے ساز کرنا
نیمچہ ہاتھ میں، مستی سے لہو سی آنکھیں
رہ میر غریبانہ، جاتا تھا چلا روتا
सर बसर कीं है, लेक वह पुरकार
फिरता है जि़जि़न्दगी ेके लिये आह ख़्वार क्या
इक निगह, एक चश्मक, एक सुख़न
سر بسر کیں ہے، لیک وہ پرکار
پھرتا ہے زندگی کے لئے آہ خوار کیا
उससे यूँ गुल ने रंग पकड़ा है
तमाम रोज़ जो कल मैं पिये शराब, फिरा
اس سے یوں گل نے رنگ پکڑا ہے
تمام روز, جو کل میں پیے شراب، پھرا
اک نگہ ایک چشمک، ایک سخن
हम आजिज़ों पर आकर, यूँ कोह-ए-ग़म गिरा है
बे रंग, बे साबती, यह गुलसिताँ बनाया
بے رنگ، بے ثباتی، یہ گلستاں بنایا
ہم عاجزوں پر آکر، یوں کوہ غم گرا ہے
अल्लह रे गुरूर-ओ-नाज़ तेरा
यहीं है दैर-ओ-हरम, अब तो यह हक़ीक़त है
किस मर्तयः थी हस्रः थी हस्रत-ए-दीदार, मिरे साथ
क्या कहें कुछ कहा नहीं जाता
یہیں ہیں دیر و حرم، اب تو یہ حقیقت ہے
کس مرتبہ تھی حسرت دیدار مرے ساتھ
اللہ رے غرور و ناز تیرا
کیا کہیں کچھ کہا نہیں جاتا
शयद कि क़ल्ब-ए-यार भी टुक इस तरफ़ फिरे
कहते तो हो यूँ कहते, यूँ कहते जो वह आता
کہتے تو ہو یوں کہتے، یوں کہتے جو وہ آتا
شاید کی قلب یار بھی ٹک اس طرف پھرے
बँधा रात आँसू का कुछ तार सा
कभू जो आन के हम से भी तू मिला करता
بندھا رات آنسو کا کچھ تار سا
کبھو جو آن کے ہم سے بھی تو ملا کرتا
कभू तो दैर में हूँ मैं, कभू हूँ का’बे में
फ़रो आता नहीं सर नाज़ से अब के अमीरों का
मीर भी दैर के लोगों ही की सी कहने लगा
کبھو تو دیر میں ہوں میں کبھو ہوں کعبے میں
فرو آتا نہیں سر ناز سے اب کے امیروں کا
میر بھی دیر کے لوگوں ہی کی سی کہنے لگا
हाथ दामन में तिरे मारते झुंझला के न हम
मैं जवानी में मै परस्त रहा
अय नुकीले, यह थी कहाँ की अदा
اے نکیلے، یہ تھی کہاں کی ادا
میں جوانی میں مے پرست رہا
ہاتھ دامن میں ترے مارتے جھنجھلا کے نہ ہم
फि़तने फ़साद उठेंगे, घर घर में खून होंगे
गया हुस्न, ख़ूबान-ए-बद राह का
گیا حسن، خوبان بد راہ کا
فتنے فساد اٹھیں گے، گھر گھر میں خون ہوں گے
ए’जाज़ मुँह तके है, तिरे लब के नाम का
क्या कहिये दिमाग़ उसका, कि गुलगश्त में कल मीर
रहने के क़ाबिल तो हरगिज़ थी न यह इब्रत सराय
उम्र आवारगी में सब गुज़री
کیا کہیے دماغ اس کا، کہ گل گشت میں کل میر
رہنے کے قابل تو ہر گز تھی نہ یہ عبرت سراے
عمر آوارگی میں سب گزری
اعجاز منہ تکے ہے، ترے لب کے نام کا
मुरीद-ए-पीर-ए-मुग़ाँ, सिदक़ से न हम होते
है इश्क़ में सब्र नागवारा
ہے عشق میں صبر ناگوارا
مرید پیر مغاں، صدق سے نہ ہم ہوتے
क्या कहे हाल, कहीं दिलज़दः जा कर अपना
उन ने खेंचा है मिरे हाथ से, दामाँ अपना
ان نے کھینچا ہے مرے ہاتھ سے، داماں اپنا
کیا کہے حال، کہیں دل زدہ، جاکر اپنا
दिल ’अजब शहर था ख़याँलों का
करता हूँ अल्लह अल्लाह, दर्वेश हूँ सदा का
हमेशः इल्तिफ़ात उस का, किसू के बख़्त से होगा
کرتا ہوں اللہ اللہ، درویش ہوں سدا کا
ہمیشہ التفات اس کا، کسو کے بخت سے ہوگا
دل عجب شہر تھا، خیالوں کا
गो बेकसी से, इश्क़ की आतश में जल बुझा
ख़ानः आबादी हमें भी दिल की है, यूँ आरजू
डरता हूँ, मालिकान-ए-जज़ा, छाती देखकर
گوبیکسی سے، عشق کی آتش میں جل بجھا
خانہ آبادی ہمیں بھی دل کی ہے، یوں آرزو
ڈرتا ہوں، مالکان جزا، چھاتی دیکھ کر
बहार आई चलो चमन में, हवा के द्वपर भी रंग आया
कोशिश में सर मारा, लेकिन दर प् किसी के जा न सका
ख़ूब किया, जो अहल-ए-करम के जूद का कुछ न ख़याल किया
بہار آئی چلو چمن میں، ہوا کے اوپر بھی رنگ آیا
کوشش میں سرمارا، لیکن درپہ کسی کے جانہ سکا
خوب کیا، جو اہل کرم کے جود کا کچھ نہ خیال کیا
दूर बहुत भगो हो हम से, सीख तरीक़ गि़ज़ालों का
इश्क़ हमारे ख़्याल पड़ा है, ख़्वाब गया आराम गया
रखे रहते हैं दिल पर हाथ अय मीर
رکھے رہتے ہیں دل پر ہاتھ اے میر
عشق ہمارے خیال پڑا ہے، خواب گیا آرام گیا
دور بہت بھاگو ہو ہم سے، سیکھ طریق غزالوں کا
आज हमारा दिल तड़पे हे, कोई उधर से आवेगा
बाद हमारे इस फ़न का जो काई माहिर होवेगा
بعد ہمارے، اس فن کا جو کوئی ماہر ہووے گا
آج ہمارا دل تڑپے ہے، کوئی ادھر سے آوے گا
देर, बद’अहूद वह जो यार आया
गुर्बत है दिल आवेज़ बहुत, शहर की उस के
दिल तड़पे है, जान खपे है, हाल जिगर का क्या होगा
गै़र अज़ खु़दा की ज़ात, मिरे घर में कुछ नहीं
غربت ہے دل آویز بہت، شہر کی اس کے
غیر از خدا کی ذات، مرے گھر میں کچھ نہیں
دیر، بد عہد وہ جویار آیا
دل تڑپے ہے، جان کھپے ہے، حال جگر، کا کیا ہوگا
किस की मस्जिद, कैसा मैख़नः कहाँ के शैख़-ओ-शाब
फूल इस चमन के, देखते क्या क्या झडे हैं हाय
जो क़ाफ़ले गये थे, उन्हों की उठी भी गर्द
پھول اس چمن کے، دیکھتے کیا کیا جھڑے ہیں ہائے
کس کی مسجد، کیسا میخانہ، کہاں کے شیخ وشاب
جو قافلے گئے تھے، انھوں کی اٹھی بھی گرد
चारे, उचक्के, सिख, मरहट्टे, शाह-ओ-गदा, ज़र ख़्वाहाँ है
कल कुछ सबा हुई थी गुल अफ़्शँ क़फ़स में भी
इल्तिफ़ात-ए-ज़मानः पर मत जा
पल्कों पर थे पारः-ए-जिगर, रात
التفات زمانہ پر مت جا
چور، اچکے، سکھ، مرہٹے، شاہ وگدا، زر خواہاں ہیں
کل کچھ صبا ہوئی تھی گل افشاں قفس میں بھی
پلکوں پہ تھے پارۂ جگر، رات
मुखड़े से उठाई उन ने जुल्फ़ें
जागे थे हमारे बख़्त-ए-खुफ़तः
फिर न आये, जो हुए ख़ाक में जा आसूदा
پھر نہ آئے، جو ہوئے خاک میں جا آسودہ
جاگے تھے ہمارے بخت خفتہ
देर कुछ खिंचती, तो कहते भी मुलाक़ात की बात
अब तो चुप लग गई है हैरत से
اب تو چپ لگ گئی ہے حیرت سے
دیر کچھ کھنچتی، تو کہتے بھی ملاقات کی بات
हुर्मत में मैं के, कहने से वा’इज़ कें, है फ़ुतूर
देखें तो, क्या दिखये, यह इफ्रात-ए-इश्तियाक़
बुलबुल के बोलने से, हे क्यों बेदिमारा गुल
دیکھیں تو، کیا دکھائے، بہ افراط اشتیاق
بلبل کے بولنے سے، ہے کیوں بے دماغ گل
حرمت میں مے کے، کہنے سے واعظ کے ہے فتور
होती है गर्चे कहने से यारो, पराई बात
अजब नहीं है, न जाने जो मीर चाहे की रीत
عجب نہیں ہے، نہ جانے جو میر چاہ کی ریت
ہوتی ہے گرچہ کہنے سے یارو، پرائی بات
मारना आशिकों का गर है सवाब
फूल गुल, शम्स-ओ-क़मर, सारे ही थे
दिल की तह की कही नहीं जातनी, नाजुक है असरार बहुत
مارنا عاشقوں کا گر ہے ثواب
پھول گل، شمس و قمر، سارے ہی تھے
دل کی تہ کی کہی نہیں جاتی، نازک ہیں اسرار بہت
आये ळै मीर, मुँह को बनाये ख़फ़ा से आज
बरअफ्रोख़्तः रु,ख है उस का, किस खूबी से मस्ती में
بر افروختہ رخ ہے اس کا، کس خوبی سے، مستی میں
آئے ہیں میر، منہ کو بنائے خفا سے آج
कहूँ से क्या कहूँ, ने सब्र-ओ-ने क़रार है आज
चश्म हो, तो आईनः ख़ानः दहर
چشم ہو، تو آئینہ خانہ ہے دہر
کہوں س کیا کہوں، نے صبرونے قرار ہے آج
आग सा तू जो अय गुल-ए-तार, आन के बीच
آگ سا تو جو ہوا اے گل تر، آن کے بیچ
आती है ख़ून की बू, दोस्ति-ए-यार के बीच
अय बू-ए-गुल, समझ के महकियो पवन के बीच
اے بوئے گل، سمجھ کے مہکیو یون کے بیچ
آتی ہے خون کی بو، دوستی یار کے بیچ
सुथराओ कर दिया है, तमन्ना-ए-वस्ल ने
मैं बेदिमारा-ए-इश्क़ उठा सेा चला गया
ستھراؤ کر دیا ہے، تمنائے وصل نے
میں بیدماغ عشق اٹھا سو چلا گیا
उस के रंग खिला है शयद, काई फूल बहार के बीच
अय गुल-ए-नौ के मानिन्द
اس کے رنگ کھلا ہے شاید، کوئی پھول بہار کے بیچ
اے گل نو دمیدہ کے مانند
ख़ाक भी सर प डालने को नहीं
क़फ़स तो याँ से गये पर, मुदाम है सय्याद
न दर्दमन्दी से यह राह तुम चेले वर्नः
असीर कर के, न ली तू ने तो ख़्बर सय्याद
اسیر کرکے، نہ لی تونے تو خبر صیاد
نہ درد مندی سے یہ راہ تم چلے ، ورنہ
گل پژمردہ کا، نہیں ممنون
گئے دن عجز و نالے کے کہ اب ہے
دل وہ نگر نہیں، کہ پھر آباد ہو سکے
جاتا ہے آسماں لئے کوچے سے یار کے
دیکھ نہ چشم کم سے ، معمورہ جہاں کو
نہ ملیں گو کہ ہجر میں مر جائیں
مشت خاک اپنی جو پامال ہے یاں، اس پہ نہ جا
دل سے میری شکستیں الجھی ہیں
شکوہ آبلہ ابھی سے میر
حاصل بجز کدورت اس خاکداں سے کیا ہے
ہم بھی پھرتے ہیں یک حشم لے کر
وے لوگ تم نے ایک ہی شوخی میں کھو دئے
مرتے ہیں ہم تو آدم خاکی کی شان پر
صورت پرست ہوتے نہیں معنی آشنا
سحر گوش گل میں کہا میں نے ، جاکر
مذہب سے میرے کیا تجھے تیرا دیاراور
بڑی دولت ہے درویشی جو ہمرہ ہو قناعت کے
اک شور ہے جو عالم کون و فساد میں
مت اس چمن میں ، غنچہ روش، بود و باش کر
ہوتا نہیں ہے باب اجابت کا وا، ہنوز
ابر سیہ قبلے سے اٹھ کر، آیا ہے میخانے پر
دل گئے، آفت آئی جانوں پر
شب اس دل گرفتہ کو واکر، بزور مے
ہوئے خوں آتی ہے باد صبح گاہی سے مجھے
قیس و فرہاد پر نہںی موقوف
آتش دل بجھی نہیں، شاید
جو دیکھو مرے شعر تر کی طرف
میں گم کردہ چمن، زمزمہ پرداز ہے ایک
کیا کہوں تم سے میں کہ کیا ہے عشق
غافل ہیں ایسے، سوتے ہیں گویا، جہاں کے لوگ
ہے آگ کا سا، نالۂ کاہش فزا کا رنگ
اللہ رے عندلیب کی آواز دلخراش
کیا بلبل اسیر ہے بے بال و پر کہ ہم
کر سیر جذب الفت، گلچیں نے کل چمن میں
بیٹھے ہم اپنے طور سے مستوں میں ، جب اٹھے
ہم اپنے چاک جیب کو سے رہتے یا نہیں
کرتے ہیں گفتگو، سحر اٹھ کر ، صبا سے ہم
گرچہ آوارہ، جو صبا ہیں ہم
مجمع میں قیامت کے ، اک آشوب سا ہوگا
ہے تہ دل بتوں کا کیا معلوم
کیا لطف تن چھپا ہے، مرے تنگ پوش کا
جو دیکھو وہ قامت، تو معلوم ہو
چاہیں تو تم کو چاہیں، دیکھیں تو تم کو دیکھیں
جی کے تئیں چھپاتے نہیں، پوں تو، غم سے ہم
تلواریں کتنی کھائی ہیں سجدے میں، اسطرح
کھا گئے یاں کے فکر، سو موہوم
بیکلی، بے خودی، کچھ آج نہیں
یارب اس محبوب کو پھر اک نظر دیکھیں گے ہم
سوزش دل سے مفت گلتے ہیں
اس کے کوچے سے جو اٹھ، اہل وفا جاتے ہیں
نہ گیا خیال زلف جفا شعاراں
کہیو قاصد، جو وہ پوچھے ہمیں، کیا کرتے ہیں
تمہیں بھی چاہیے ہے کچھ تو پاس چاہت کا
سہل اس قدر نہیں ہے، مشکل پسندی اپنی
اس گلشن دنیا میں شگفتہ نہ ہوا میں
آسودہ کیوں نکہ ہوں میں، کہ مانند گرد باد
اب کس کس اپنی خواہش مردہ کو روئیے
خار کو جن نے لڑی موتی کی کر دکھلایا
رکھا کر ہاتھ دل پر، آہ کرتے
مت سہل ہمیں جانو، پھرتا ہے فلک برسوں
غافل نہ رہیو ہم سے ، کہ ہم وے نہیں رہے
کوئی نہیں جہاں میں جو اندوہ گیں نہیں
ہم آپ ہی کو، اپنا مقصود جانتے ہیں
تلوار غرق خوں ہے، آنکھیں گلابیاں ہیں
چلا نہ اٹھ کے وہیں چپکے چپکے پھر تو میر
مانند شمع، ہم نے حضور اپنے یار کے
جفائیں دیکھ لیاں، بے وفائیاں دیکھیں
خاک آدم ہی ہے تمام زمیں
ہفت اقلیم ہر گلی ہے ، کہیں
بارہا وعدوں کی راتیں آئیاں
میں کون ہوں،، اے ہم نفساں، سوختہ جاں ہوں
اگر چہ نشہ ہوں سب میں خم جہاں میں لیک
اے عدم ہونے والو، تم تو چلو
خوبرو سب کی جان ہوتے ہیں
ہر نقش پا ہے شوح ترا، رشک یاسمن
خون ٹپکے ہے پڑا، نوک سے ہر اک کی ہنوز
آجائیں ہم نظر جو کوئی دم، بہت ہے یاں
نہ بھائی، ہماری تو قدرت نہیں
لب ترے لعل ناب ہیں دونوں
مدعی مجھ کو کھڑے صاف برا کہتے ہیں
کوئی بجلی کا ٹکڑا، اب تلک بھی
عشق میں، جی کو صبر و تاب کہاں
اٹھاتے ہاتھ کیوں نو مید ہو کر
یارو، مجھے معاف رکھو، میں نشے میں ہوں
اب کی جنوں میں، فاصلہ شاید نہ کچھ رہے
ہم نے بھی نذر کی ہے ، کہ پھرے چمن کے گرد
آج ہمارے گھر آیا تو، کیا ہے یاں جو نثار کریں
ہے عاشقی کے بیچ ستم دیکھنا ہے لطف
جور کیا کیا، جفائیں کیا کیا ہیں
چمن میں جاکے بھرو تم گلوں سے جیب و کنار
دم زدن مصلحت وقت نہیں اے ہمدم
کہے تو ہم نشیں، رنگ تصرف کچھ دکھاؤں میں
ساتھ اپنے نہیں اسباب مساعد مطلق
کبھو ملے ہے سو وہ یوں، کہ پھر ملا نہ کریں
جب لگ گئے جھمکنے، رخسار یار دونوں
بہت نا آشنا تھے لوگ یاں کے
رفتگاں میں جہاں کے ، ہم بھی ہیں
زبانیں بدلتے ہیں ہر آن خوباں
گزرے گر دل میں ہو کر، تو ایک نگاہ ضروری ہے
تری پلکیں، چبھتی میں بھی ہیں
بھرے رہتے ہیں سارے پھول ہی جس کے گریباں میں
کبھو خورشید و مہ کو دیکھ رہتا ہوں، کبھو گل کو
شہروں ملکوں میں جو یہ میر کھاتا ہے میاں
گرفتہ دل ہوں، سر ارتباط مجھ کو نہیں
ہم بھی تو فصل گل میں، چل ٹک تو پاس بیٹھیں
جائے ہے جی، نجات کے غم میں
دور اس سے جی چکے ہیں، ہم اس روز گار میں
خدا ساز تھا، آذر بت تراش
کس دن چمن میں یارب، ہوگی صبا گل افشاں
پیام اس گل کو، اسے کے ہاتھ دیتے
رہا تھا دیکھ اودھر میر چلتے
اب کی ماہ رمضان دیکھا تھا پیمانے میں
کوئی طرف یاں ایسی نہیں، جو خالی ہووے اس سے میر
جہاں کے باغ کا یہ عیش ہے، کہ گل کے رنگ
وہ تو نہیں کہ دیکھیں اس آئینہ رو کو صبح
صبح ہوئی، گلزار کے طائر، دل کو، اپنے ٹٹولیں ہیں
نازکی ہائے رے، طالع کی نکوئی سے کبھو
اب در باز بیاباں ہیں قدم رکھیے میر
ہم کو کہنے کے تئیں، بزم میں جا دیتے ہیں
گوندھ کے گویا پتی گل کی، وہ ترکیب بنائی ہے
غم ہجراں میں گھبرا کر اٹھا میں
یوں ناکام رہیں گے کب تک، جی میں ہے اک کام کریں
شور نہیں یاں سنتا کوئی میر قفس کے اسیروں کا
عشق نے ہم کو مار رکھا ہے، جی میں اپنے تاب نہیں
دل جلتے کچھ بن نہیں آتی، حال بگڑتے جاتے ہیں
بہار آئی، مزاجوں کی سبھی تدبیر کرتے ہیں
حاکم شہر حسن کے ظالم، کیونکہ ستم ایجاد نہیں
نہ سمجھو مجھے بے خبر اس قدر
شوخی چشمی تری، پردے میں ہے جب تک، تب تک
شاید بہار آئی ہے، دیوانہ ہے جہاں
فلک نے گر کیا رخصت مجھے، سیر بیا باں کو
تا چند کوچہ گردی، جیسے صبا، زمیں پر
خط لکھ کے کوئی سادہ نہ اس کو، ملول ہو
گر بہشت آویے تو آنکھوں میں مری پھیکی لگے
آرام ہو چکا، مرے جسم نزار کو
خوبی یہی نہیں ہے، کہ انداز و ناز ہو
جس راہ ہو کے آج میں پہونچا ہوں تجھ تلک
گل ہو، مہتاب ہو، آئینہ ہو، خورشید ہو، میر
شیخ جی آؤ مصّلی گرو جام کرو
ملتفت ہوتا نہیں ہے گاہ تو
دیر رہنے کی جا نہیں یہ چمن
یہی مشہور عالم ہیں، دو عالم
قطرہ قطرہ اشک باری تا کجا پیش سحاب
ہو کوئی بادشاہ، کوئی یاں وزیر ہو
ہوگا کسو دیوار کے سائے میں پڑا میر
سر خاک آستاں پہ تمہارے رہا مدام
کھینچا ہے آدمی نے بہت دور آپ کو
اس باغ کے ہر گل سے ، جھپک جاتی ہیں آنہیں
مستی ان آنکھوں سے نکلے ہے، اگر دیکھو خوب
دشت و کوہ میں میر پھرو تم، لیکن ایک ادب کے ساتھ
اب کی بہت ہے شور بہاراں، ہم کومت زنجیر کرو
بارے دنیا میں رہو غم زدہ یا شاد رہو
یہ سرا ہونے کی جاگہ نہیں، بیدار رہو
کیا آنکھ بند کرکے مراقب ہوئے ہو تم
اڑایا غم نے اب کے سوکھے پتوں کی روش ہم کو
چاک قفس سے آنکھیں لگی کب تلک رہیں
گردش میں جو کوئی ہو، رکھے اس سے کیا امید
دل کھلتا ہے واں، صحبت، رندانہ جہاں ہو
ہم بیخودان مجلس تصویر، اب گئے
میری طرف کی یارو، اس سے بات کوئی کہتے ہو کہو
گردش چشم سیہ کاسہ سے، جمع نہ رکھو خاطر تم
فرصت بود وباش یاں کم ہے
فکر سنے اپنے گزرتا ہے زمیں کاوی میں دن
چمن میں دلخراش آواز آتی ہے چلی، شاید
جا کے پوچھا جو میں یہ کار گھر مینا میں
آگ تھے ابتدائے عشق میں ہم
اب حال اپنا، اس کے ہے دلخواہ
رات مجلس میں تری، ہم بھی کھڑے تھے چپکے
بند ے کے درد کو، کوئی نہیں پہونچتا
نام ہیں خستۂ و آوارۂ و بد نام مرے
لطف کیا، ہر کسو کی چاہ کے ساتھ
وصل اس کا، خدا نصیب کرے
آنکھ اس منہ پہ کس طرح کھولوں
یہ جو مہلت جسے کہیں ہیں عمر
ہے تمنائے وصال اس کی، مری جان کے ساتھ
نہ باتیں کرو سر گرانی کے ساتھ
ہم جانتے، تو عشق نہ کرتے کس وکے ساتھ
ملتا رہا کشادہ جبیں حوب و زشت سے
گل گل شگفتہ مے سے ہوا ہے نگار، دیکھ
آنکھوں میں آشنا تھا، مگر دیکھا تھا کہیں
اے کاش، فصل گل میں گئی ہوتی اپنی جان
خوش ہیں دیوانگی میں سے سب
دل کو تسکین نہیں، اشک دمادم سے بھی
یہ چشم آئینہ دار روتھی، کسو کی
دل کس قدر شکستہ ہوا تھا کہ رات میر
بیچ میں ہم ہی نہ ہوں، تو لطف کیا
اس کے ایفائے عہد تک نہ جیے
آہ میری زبان پر آئی
کعبے سو بار وہ گیا تو کیا
کیا شہر میں گنجائش، مجھ بے سرو پا کو ہو
شوخئی جلوہ اس کی، تسکین کیونکہ بخشے
ترے کوچے کے شوق طوف میں، جیسے بگولا تھا
لا علاجی ہے جو رہتی ہے مجھے آوارگی
باہم سلوک تھے، تو اٹھاتے تھے نرم گرم
کچھ موج ہوا پیچاں، اے میر نظر آئی
ہو گئی شہر شہر رسوائی
میری پرسش پہ ، تری طبع اگر آوے گی
کیا کروں شرح، خستہ جانی کی
اپنے کوچے میں نکلیو، تو سنبھالے دامن
میں پا شکستہ جا نہ سکا قافلے تلک
رہی نہ گفتہ، مرے دل میں، داستاں میری
آج کل بیقرار ہیں ہم بھی
مدت سے ہیں اک مشت پر، آوارہ چمن میں
بغیر دل، کہ یہ قیمت ہے سارے عالم کی
گرے سے داغ سینہ، تازہ ہوئے ہیں سارے
کچھ کرو فکر، مجھ دوانے کی
میر دریا ہے، سنے شعر زبانی اس کی
یہ جو رو جور کش تھے کہاں، آگے عشق میں
دریائے حسن یار، تلاطم کرے کہیں
لطف پر اس کے، ہم نشیں، مت جا
پیدا کہاں ہیں ایسے پراگندہ طبع لوگ
دلیل اس بیاباں میں، دل ہی ہے اپنا
نرگس مستانہ، باتیں کرے ہے درہم
بات کیا آدمی کی بن آئی
گر کر اس کی گلی میں، خاک میں مفت
آج ہمیں بے تابی سے ہی، صبر کی دل سے رخصت تھی
دیکھو تو، دل کہ جاں سے اٹھتا ہے
مجھے میر تاگور کاندھا دیا تھا
میں چراغ صبح گاہی ہوں، نسیم
پھرتے ہیں میر خوار، کوئی پوچھتا نہیں
دلی میں اب کی آکر، ان یاروں کو نہ دیکھا
شہادت گاہ ہے ، باغ زمانہ
تجھے نسبت جو دیتے ہیں شرارو برق و شعلہ سے
گئے جی سے ، چھوٹے بتوں کی جفا سے
برنگ ہوئے گل، اس باغ کے ہم آشنا ہوتے
لخت دل کب تک الٰہی، چشم سے ٹپکا کریں
عشق ان کو ہے جو یار کو اپنے دم رفتن
چمن، یار، تیرا ہوا خواہ ہے
عشق میں نے خوف و خطر چاہیے
ہستی اپنی، حباب کی سی ہے
اب جو اک حسرت جوانی ہے
دل کے معمورے کی مت کر فکر، فرصت چاہیے
پاس ناموس عشق تھا ورنہ
دیکھی نہ ایک چشمک گل بھی چمن میں آہ
جو ہو میر بھی اس گلی میں صبا
خوب ہی اے ابر، اک شب آؤ، باہم روئیے
جام خوں بن نہیں ملتا ہے ہمیں صبح کو آب
جب نام ترا لیجئے تب چشم بھر آْویے
نہ پوچھ کچھ، لب ترسا بچے کی کیفیت
مشہور چمن میں، تری گل پیر ہنی ہے
ہوا ہے دن تو جدائی کا، سو تعب سے تمام
خوش سر انجام تھے وے، جلد جو ہشیار ہوئے
اب کرکے فراموش تو ناشاد کرو گے
ہم ہوئے، تم ہوئے، کہ میر ہوئے
ہوا مذکور نام اس کا، کہ آنسو بھہ چلے منھ پر
شش جہت سے اس میں ظالم، بوئے خوں کی راہ ہے
نالہ تا آسمان جاتا ہے
سرار دل کا، یہ کاہے کو ڈھنگ تھا آگے
جب کہ پہلو سے یار اٹھتا ہے
اے حب جاہ والو، جو آج تا جور ہے
شب گئے تھے باغ میں، ہم ظلم کے مارے ہوے
کرے کیا، کہ دل بھی تو مجبور ہے
قصد گر امتحان ہے، پیارے
زخموں پہ زخم جھیلے داغوں پہ داغ کھائے
ہم نے جانا تھا، سخن ہوں گے زباں پر کتنے
مہو شاں پوچھیں نہ ٹک، ہجراں میں گر مر جائیے
بارے نسیم، ضعف سے کل ہم اسیر بھی
رہتے ہیں داغ اکثر، نان و نمک کی خاطر
جم گیا خوں کف قاتل پہ ترا میر زبس
جن جن کو تھا یہ عشق کا آزار، مر گئے
رکا جاتا ہے جی اندر ہی اندر آج گرمی سے
حصول کام کا دلخواہ یاں ہوا بھی ہے
اب سب کے روز گار کی صورت بگڑ گئی
وا اس سے سر حرف تو ہو، گو کہ یہ سر جائے
لپٹا ہے دل سوزاں کو اپنے میر نے خط میں
مجھ سوز بعد مرگ سے آگاہ کون ہے
اکثر آلات جور، اس سے ہوئے
اس دشت میں اے سیل سنبھل ہی کے قدم رکھ
غیروں کا ساتھ موجب صد وہم ہے بتاں
تجھ کو مسجد ہے، مجھ کو میخانہ
نہیں وسواس جی گنوانے کے
تم نے جو اپنے دل سے بھلایا ہمیں، تو کیا
روز آئے پہ نہیں نسبت عشقی موقوف
کاہے کو یہ انداز تھا اعراض بتا ں کا
چل قلم، غم کی رقم کوئی حکایت کیجے
فیقرانہ آئے، صدا کر چلے
دور میں چشم مست کے تیرے
زیر فلک بھلا تو، رووے ہے آپ کو میر
تازگی داغ کی، ہر شام کو ہے ہیچ نہیں
کرو تو کل کہ عاشقی میں نہ یوں کرو گے تو کیا کرو گے
ہے جو اندھیر شہر میں، حورشید
ادھر سے ابر اٹھ کر جو گیا ہے
صبح وہ آفت اٹھ بیٹھا تھی، تم نے نہ دیکھا صد افسوس
عمر بھر ہم رہے شرابی سے
ہوگا ستم و جور سے تیرے ہی کنایہ
اسیر زلف کرے، قیدی کمند کرے
اپنے ہی دل کا گنہ ہے جو جلاتا ہے مجھے
چشم گل باغ میں مندی جاہے
کعبے میں جاں بلب تھے، ہم دوری بتاں سے
بہار آئی ہے، غنچے گل کے نکلے ہیں گلابی سے
بھری آنکھیں کسو کی پونچھتے، گر آستیں رکھتے
تم چھیڑتے ہو بزم میں ، مجھ کو تو ہنسی سے
آہ کیا سہل گزر جاتے ہیں جی سے عاشق
تری چال تیڑھی، تری بات روکھی
یا بادۂ گلگوں کی، حاطر سے ہوس جاوے
سو رنگ، کی جب خوبی، پاتے ہیں اسی گل میں
ہم نے بھی نذر کی ہے، پھریں گے چمن کے گرد
پھولوں کی سیج پر سے ، جو بے دماغ اٹھے
گل گئے، بوٹے گئے، گلشن ہوئے برہم گئے
جائے غیرت ہے خاکدان جہاں
حنا سے یار کا پنجہ نہیں ہے گل کے رنگ
ٹک ٹھہرنے دے تجھے شوخی، تو ٹک ٹھہرائیے
دہر کا ہو گلہ کہ شکوۂ چرخ
کیا کہیے، کلی سا وہ دہن ہے
رشتہ کیا ٹھہرے گا یہ، جیسے کہ مو، نازک ہے
ہم مست ہو بھی دیکھا، آخر مزا نہیں ہے
کیا تن نازک ہے، جاں کو بھی حسد جس تن پہ ہے
کوفت سے جان لب پہ آئی ہے
ہم طور عشق سے، تو واقف نہیں ہیں، لیکن
لگ چلے ہے مگر اس گیسوئے عنبر بوسے
کار دل اس مہ تمام سے ہے
عبرت سے دیکھ جس جا یاں کوئی گھر بنے ہے
کیسے نازو تبختر سے ، ہم اپنے یار کو دیکھا ہے
ہم چمن میں گئے تھے، وانہ ہوئے
خدا کرے، مرے دل کو ٹک اک قرار آوے
رنگ لیتی ہے سب ہوا اس کا
دن فصل گل کے جاتے ہیں اب کے بھی باؤ سے
قصر و مکان و منزل، ایکوں کو سب جگہ ہے
چلتے ہو تو چمن کو چلیے، کہتے ہیں کہ بہاراں ہے
کیا کہیے، کچھ بن نہیں آتی، جنگل جنگل ہوآئے
موسم ہے، نکلے شاخووں سے پتے ہرے ہرے
گلستاں کے ہیں دونوں پلّے بھرے
پتا پتا بوٹا بوٹا حال ہمارا جانے ہے
دامان دراز اس کا جوں صبح، نہیں کھینچا
چارہ گر اس شہر کے ہوں، تو فکر کریں آبادی کا
زلفیں اس کی، ہوا کریں برہم
کیا کہیے، اپنے عہد میں جتنے امیر تھے
سب مزے در کنار عالم کے
تو ہی کر انصاف صبا ٹک، باغوں باغوں پھرے ہے تو
آنکھ مستی میں، کسو پر نہیں پڑتی اس کی
کہتے ہیں، مرنے والے یاں سے گئے
پڑتا ہے پھول برق سے گلزار کی طرف
وہ دل نہیں رہا ہے، نہ اب وہ دماغ ہے
بزم میں پوچھا، تو یوں انجان ہو
شاید شراب خانے میں، شب کو رہے تھے میر
اس مرے نو بادۂ گلزار خوبی کے حضور
ہمیں جس جائے کل غش آگیا تھا
عشق کیا کوئی اختیار کرے
سرورق
میر کی وصیت
मीर की वसीयत
भूमिका
دیباچہ
یک بیاباں برنگ صوت جرس
यक बयाबाँ बरंग-ए-सौत-ए-जरस
उस मिरे नौबावः-ए-गुल्ज़ार-ए-ख़ूबी के हुजूर
اس مرے نوبادۂ گلزار خوبی کے حضور
آکے سجادہ نشیں قیس ہوا میرے بعد
आ के सज्जादः नशीं क़ैस हुआ मेरे बाद
रहे उमर भर देखते, सादगाँ को
मौसम-ए-अब्र हो, सुबू भी हो
ज़मीमः
शब वंह जो पिये शराब, निकला
موسم ابر ہو، سبو بھی ہو
شب وہ جو پیئے شراب، نکلا
ضمیمہ
رہے عمر بھر دیکھتے سادگاں کو
जीते रहे तो उस से हम आगोश होंगे मीर
जो जो जुल्म किये हैं तुमने सो सो हमने उठाये हैं
इस बेकसी से कौन जाहाँ में मुआ, कि मैं
جو جو ظلم کیے ہیں تم نے سو سو ہم نے اٹھائے ہیں
اس بیکسی سے کون جہاں میں ہوا، کہ میں
جیتے رہے تو اس سے ہم آغوش ہونگے میر
ना दिमाग़ है कि किसू से हम, करें गुफ्तुगू ग़म-ए-यार में
इश्क में अय हमरियहाँ, कुछ तो किया चाहिये
عشق میں اے ہمریاں،کچھ تو کیا چاہیے
نہ دماغ ہے کہ کسو سے ہم، کریں گفتگو غم یار میں
लिखावट और उच्चारण का नक़्श्ः
हर जी हयात का, है सबब जो हयात का
ہر ذی حیات کا، ہے سبب جو حیات کا
मेरे मालिक ने, मिरे हक़ में, यह एहसान किया
हंगामः गर्मकुन, जो किदल-ए-नासबूर था
میرے مالک نے ، مرے حق میں، یہ احسان کیا
ہنگامہ گرم کن، جو دل ناصبور تھا
कल पाँव एक कासः-ए-सर पर जो आगया
क्या मैं भी परीशानि-ए-ख़ातिर से क़रीं था
کل پاؤں ایک کاسۂ سر پر جو آگیا
کیا میں بھی پریشانیٔ خاطر سےر قریں تھا
लुत्फ़ अगार यह कै धुताँ, संदल-ए-पेशानी का
لطف اگر یہ ہے بتاں، صندل پیشانی کا
कहा मैं ने, कितना है गुल का सबात
इस अहद में इलाही, महब्बत को क्या हुआ
کہاں میں نے، کتنا ہے گل کا ثبات
اس عہد میں الٰہی، محبت کو کیا ہوا
उल्टी होगईं सब तदबीरें, कुछ न दवा ने काम किया
الٹی ہوگئیں سب تدبیریں، کچھ نہ دوانے کام کیا
चमन में गुल ने, जो कल दा’वः-ए-जमाल किया
چمن میں گل نے، جو کل دعوئے جمال کیا
मुनइम ने, बिना जुल्म की रख, घर तो बनाया
ता गोर के ऊपर, वह गुल अंदाम न आया
تا گور کے اوپر، وہ گل اندام نہ آیا
منعم نے، بنا ظلم کی رکھ، گھر تو بنایا
जिस सर को गुरूर आज है, याँ ताज्वरी का
جس سر کو غرور آج ہے، یاں تاجوری کا
उलझाव पड़ गया, जो हमें उसके इश्क में
मुँह तका ही करे है, जिस तिस का
الجھاؤ پڑگیا، جو ہمیں اس کے عشق میں
منہ تکاہی کرے ہے، جس تس کا
दिल बहम पहुँचा बदन में, तब से सारा तन जला
बेताब जी को देख, दिल को कबाब देखा
بیتاب جی کو دیکھا، دل کو کباب دیکھا
دل بہم پہونچا بدن میں، تب سے سارا تن جلا
जब जुनूँ से हमें तवस्सुल था
جب جنوں سے ہمیں توسل تھا
सुनियो जब वह कभू सवार हुआ
मर रहते जो गुल बिन, तो सारा यह ख़लल जाता
शायद किसू के दिल को लगी उस गली में चोट
شاید کسو کے دلکو لگی اس گلی میں چوٹ
مر رہتے جو گل بن تو سارا یہ خلل جاتا
سنیو جب وہ کبھو سوار ہوا
शहर-ए-दिल एक मुद्दत, उजड़ा बसा, रामों में
दी आग रंग-ए-गुल ने, वाँ अय सबा चमन को
دی آگ رنگ گل نے، واں اے صبا چمن کو
شہر دل ایک مدت، اجڑا بسا، غموں میں
उगते थे दस्त-ए-बुलबुल-ओ-दामान-ए-गुल बहम
हमारे आगे, तिरा जब किसू ने नाम लिया
ہمارے آگے، ترا جب کسو نے نام لیا
اگتے تھے دست بلبل ودامان گل بہم
गुल को, महबूब हम कि़यास किया
क्या तरह है, आश्ना गाहे, गहे नाआश्ना
کیا طرح ہے، آشنا گاہے، گہے نا آشنا
گل کو، محبوب ہم قیاس کیا
देगी न चैन लज्जत-ए-जख़्म, उस शिकार को
दाग़-ए-फि़राक़-आ-हसरत-ए-वस्ल,आरजू-ए-शौक़
है उस के हुऱ्-ए-जे़र-ए-लबी का सभें में जि़क्र
गुद्द’आ जो है, सो वह पाया नहीं जाता कहीं
ہے اس کے حرف زیر لبی کا، سبھوں میں ذکر
داغ فراق وحسرت وصل، آرزوئے شوق
مدعا جو ہے، سو وہ پایا نہیں جاتا کہیں
دے گی نہ چین لذت زخم، اس شکار کو
निकली थी तेरा, बेदरेग़ उस की
हम ख़स्तः दिल हैं, तुझ से भी नाजुक मिज़ाज तर
सुना है हाल, तिरे कुशतगँ बिचारों का
سنا ہے حال، ترے کشتگاں بچاروں کا
نکلی تھی تیغ بے دریغ اس کی
ہم خستہ دل ہیں، تجھ سے بھی نازک مزاج تر
सद ख़ानुमाँ ख़राब है, हर हर क़दम प दफ़्न
صد خانما خراب ہیں، ہر ہر قدم پہ دفن
दिल से शैक़-ए-रुख़-ए-निकून गया
यह तुम्हारी, इन दिनों दोस्तोँ मिशः जिस के राम में है ख़ूँचकाँ
जिन बलाओं को मीर सुनते थे
یہ تمہاری ان دنوں دوستاں، مژہ جسکے غم میں ہے خو نچکاں
جن بلاؤں کو میر سنتے تھے
دل سے شوق رخ نکو نہ گیا
मेहर की तुझ से तवक़्क़ोअ थी सितमगर निकला
مہر کی تجھ سے توقع تھی، ستمگر نکلا
फिर नोहःगरी कहाँ, जहाँ में
उस का खिराम देख के जाया न जायगा
اس کا خرام دیکھ کے جایا نہ جائے گا
پھر نوحہ گری کہاں، جہاں میں
दिल की वीरीनी का क्या मज़कूर है
उनने तो मुझ को झूँटे भ पूछा न एक बार
ان نے تو مجھ کو جھونٹے بھی پوچھا نہ ایک بار
اتنی گذری جو ترے ہجر میں، سو اس کے سبب
دل کی ویرانی کا کیا مذکور ہے
चश्म-ए-खूँबस्तः से कल रात लहू फिर टपका
अय दोस्त, कोई मुझ सा, रुस्वा न हुआ होगा
हक़ ढूँडने का, आप को आता नहीं वर्नः
چشم خوں بستہ سے کل رات لہو پھر ٹپکا
اے دوست، کوئی مجھ سا، رسوا نہ ہوا ہوگا
حق ڈھونڈنے کا، آپ کو آتا نہیں ورنہ
आये बरंग-ए-अब्र अरक़नाक तुम यहाँ
दुश्मनी हम से की, ज़माने ने
آئے برنگ ابر عرق ناک تم یہاں
دشمنی ہم سے کی، زمانے نے
जीते जी, कूचः-ए-दिलदार से, जाया न गया
नुमूद कर के वहीं,बहर-ए-राम में बैठ गया
कभू न आँखों में आया वह शोख़ ख़्वाब की तरह
کبھو نہ آنکھوں میں آیا وہ شوخ خواب کی طرح
نمود کرکے وہیں، بحر غم میں بیٹھ گیا
جیتے جی، کوچۂ دلدار سے، جایا نہ گیا
गये जूँ शम’अ, उस मज्लिस में जलने
गलियों में अब तलक तो, मज़्कूर है हमारा
گلیوں میں اب تلک تو، مذکور ہے ہمارا
گئے جوں شمع، اس مجلس میں جلنے
सहर गह ईद में, दौर-ए-सुबू था
سحر گہ عید میں، دور سبو تھا
राह-ए-दूर-ए-इश्क़ से, रोता है क्या
पंजः-ए-गुल की तरह, दीवानगी में हाथ को
राम्ज़े ने उसके, चोरी में दिल की, हुनर किया
غمزے نے اس کے، چوری میں دل کی، ہنر کیا
راہ دور عشق سے، روتا ہے کیا
پنجۂ گل کی طرح، دیوانگی میں ہاتھ کو
कुछ न देखा फिर, बजुज़ इक शो’लः-ए-पुर पेच-ओ-ताब
کچھ نہ دیکھا پھر، بجز اک شعلہ پر پیچ وتاب
हाथा ेस तेरे अगर, मैं नातवाँ मारा गया
दिल से रुख्सत हुई कोई ख़्वाहिश
ہاتھ سے تیرے اگر، میں ناتواں مارا گیا
دل سے رخصت ہوئی کوئی خواہش
क़द्र रखती न थी माता-ए-दिल
मैं ने तो सर दिया, मगर जल्लाद
रह-ए-तलब में गिरे होते सर के भल हम भी
میں نے تو سر دیا، مگر جلّاد
قدر رکھتی نہ تھی متاع دل
رہ طلب میں گرے ہوتے سر کے بھل ہم بھی
सब्ज़ान-ए-ताजः रेा की जहाँ जल्वः गाह थी
سبزان نازہ رو کی جہاں جلوہ گاہ تھی
यह एैश गह नहीं है, याँ रंग और कुछ है
शोहरः-ए-आलम इसी युम्न-ए-महब्बत ने किया
न हो क्यों रौरत-ए-गुल्ज़ार वह कूचः, ख़ुदा जाने
یہ عیش گہ نہیں ہے، یاں رنگ اور کچھ ہے
نہ ہوں کیوں غیرت گلزار وہ کوچہ، خدا جانے
شہرۂ عالم اسی یمنِ محبت نے کیا
पैग़ाम-ए-राम जिगर का, गुल्ज़ार तक न पहुँचा
پیغام غم جگر کا گلزار تک نہ پہونچا
दैर-औ-हरम से गुज़रे, अब दिल है घर हमारा
मा’मूर शराबों से,काबाबों स, है सब दैर
دیر و حرم سے گذرے، اب دل ہے گھر ہمارا
معمور شرابوں سے، کبابوں سے، ہے سب دیر
मज्लिस-ए-आफ़ाक़ में पर्वानः साँ
दिल न पहुँचा, गोशः-ए-दामाँ तलक
सरसरी तुम जहान से गुज़रे
دل نہ پہونچا گوشۂ داماں تلک
مجلس آفاق میں پروانہ ساں
سر سری تم جہان سے گذرے
बे ज़री का न कर गिः गा़फि़ल
بے زری کا نہ کر گلہ، غافل
कब मुसीबत ज़दः दिल, माइल-ए-आज़ार न था
पा-ए-पुर आब्लः से, मैं गुमशदः गया हूँ
پائے پرآبلہ سے، میں گم شدہ گیا ہوں
کب مصیبت زدہ دل، مائل آزار نہ تھا
कल चमन मं, मुल-ओ-समन देखा
जहाँ को फि़तने से ख़ाली कभू नहीं पाया
جہاں کو فتنے سے خالی کبھو نہیں پایا
کل چمن میں، گل و سمن دیکھا
आये अगर बहार, तो अब हम को क्या सबा
क्या दिन थे वे, कि याँ भी दिल-ए-आरमीदः था
सर-ए-दौर-ए-फ़लक भी देखूत्र अपने रू बरू टूटा
آئے اگر بہار، تو اب ہم کو کیا، صبا
کیا دن تھے وے، کہ یاں بھی دل آرمیدہ تھا
سر دور فلک بھی دیکھوں، اپنے رو برو ٹوٹا
ग़ालत है इश्क़ में, अय बुल्हवस, अन्देशः राहत का
कैसा चमन, कि हम से असीरों को मन’अ है
غلط ہے عشق میں، اے بو الہوس، اندیشہ راحت کا
کیسا چمن، کہ ہم سے اسیروں کو منع ہے
दिल इश्क का, हमेशः हरीफ़-ए-नबर्द था
मुग़ाँ, उुझ मस्त बिन, फिर ख़न्दः-ए-साग़ार न होवेगा
याँ बुलबुल औश्र गुल पे तू इबरत से आँचा खोल
دل عشق کا، ہمیشہ حریف نبرد تھا
یاں بلبل اور گل پہ تو عبرت سے آنکھ کھول
مغاں، مجھ مست بن، پھر خندۂ ساغر نہ ہووے گا
आाह की मैं दिल-ए-हैरान-ओ-ख़फ़ा को सौंपा
इत्र आगई हे बाद-ए-सुबह मगर
खुदा को काम तो सौपे ळें मैने सब, लेकिन
عطر آگیں ہے باد صبح، مگر
خدا کو کام تو سونپے ہیں میں نے سب، لیکن
آہ کی میں، دل حیران و خفا کو سونپا
खून कम कर अब, कि कुश्तों के तो पुश्ते लग गये
जल्बः उसी का सब, गुल्शन मं ज़माने के
आह-ए-सहर ने, सोजि़श-ए-दिल को मिटा दिया
آہ سحر نے، سوزش دل کو مٹا دیا
جلوہ ہے اسی کا سب، گلشن میں زمانے کے
خون کم کر اب، کہ کشتوں کے تو پشتے لگ گئے
یار عجب طرح نگہ کر گیا
कुछ गुल से हैं शिगुफ्तः, कुछ सर्व से हैं क़द कश
लज़्ज़त से नहीं ख़ली, जानेां का खपा जाना
रफ़्तार-ओ-तौर-ओ-तजऱ्-ओ-रविश का, यह ढब है क्या
کچھ گل سے ہیں شگفتہ، کچھ سروسے ہیں قد کش
لذت سے نہیں خالی، جانوں کا کھپا جانا
رفتار وطور وطرز و روش کا، یہ ڈھب ہے کیا
अब भी दिमाग़-ए-रफ़्तः हमारा, है अर्श पर
आलम की सैर मीर की सोहबत में हो होगई
समझे थे हम तो मीर आशिक़ उसी घड़ी
اب بھی دماغ رفتہ ہمارا، ہے عرش پر
سمجھے تھے ہم تو میر کو عاشق اسی گھڑی
عالم کی سیر میر کی صحبت میں ہوگئی
नज़र में तौश्र रख, उस कम नुमा का
देख आरसी को, यार हुआ महब नाज़ का
دیکھ آرسی کو، یار ہوا محو ناز کا
نظر میں طور رکھ اس کم نما کا
यह रविश है दिलबरों की, न किसू से साज़ करना
रह मीर ग़रीबानः, जाता थ चला रोता
नीमचः हाथ में, मस्ती से लहू सी आँखें
یہ روش ہے دلبروں کی، نہ کسو سے ساز کرنا
نیمچہ ہاتھ میں، مستی سے لہو سی آنکھیں
رہ میر غریبانہ، جاتا تھا چلا روتا
सर बसर कीं है, लेक वह पुरकार
फिरता है जि़जि़न्दगी ेके लिये आह ख़्वार क्या
इक निगह, एक चश्मक, एक सुख़न
سر بسر کیں ہے، لیک وہ پرکار
پھرتا ہے زندگی کے لئے آہ خوار کیا
उससे यूँ गुल ने रंग पकड़ा है
तमाम रोज़ जो कल मैं पिये शराब, फिरा
اس سے یوں گل نے رنگ پکڑا ہے
تمام روز, جو کل میں پیے شراب، پھرا
اک نگہ ایک چشمک، ایک سخن
हम आजिज़ों पर आकर, यूँ कोह-ए-ग़म गिरा है
बे रंग, बे साबती, यह गुलसिताँ बनाया
بے رنگ، بے ثباتی، یہ گلستاں بنایا
ہم عاجزوں پر آکر، یوں کوہ غم گرا ہے
अल्लह रे गुरूर-ओ-नाज़ तेरा
यहीं है दैर-ओ-हरम, अब तो यह हक़ीक़त है
किस मर्तयः थी हस्रः थी हस्रत-ए-दीदार, मिरे साथ
क्या कहें कुछ कहा नहीं जाता
یہیں ہیں دیر و حرم، اب تو یہ حقیقت ہے
کس مرتبہ تھی حسرت دیدار مرے ساتھ
اللہ رے غرور و ناز تیرا
کیا کہیں کچھ کہا نہیں جاتا
शयद कि क़ल्ब-ए-यार भी टुक इस तरफ़ फिरे
कहते तो हो यूँ कहते, यूँ कहते जो वह आता
کہتے تو ہو یوں کہتے، یوں کہتے جو وہ آتا
شاید کی قلب یار بھی ٹک اس طرف پھرے
बँधा रात आँसू का कुछ तार सा
कभू जो आन के हम से भी तू मिला करता
بندھا رات آنسو کا کچھ تار سا
کبھو جو آن کے ہم سے بھی تو ملا کرتا
कभू तो दैर में हूँ मैं, कभू हूँ का’बे में
फ़रो आता नहीं सर नाज़ से अब के अमीरों का
मीर भी दैर के लोगों ही की सी कहने लगा
کبھو تو دیر میں ہوں میں کبھو ہوں کعبے میں
فرو آتا نہیں سر ناز سے اب کے امیروں کا
میر بھی دیر کے لوگوں ہی کی سی کہنے لگا
हाथ दामन में तिरे मारते झुंझला के न हम
मैं जवानी में मै परस्त रहा
अय नुकीले, यह थी कहाँ की अदा
اے نکیلے، یہ تھی کہاں کی ادا
میں جوانی میں مے پرست رہا
ہاتھ دامن میں ترے مارتے جھنجھلا کے نہ ہم
फि़तने फ़साद उठेंगे, घर घर में खून होंगे
गया हुस्न, ख़ूबान-ए-बद राह का
گیا حسن، خوبان بد راہ کا
فتنے فساد اٹھیں گے، گھر گھر میں خون ہوں گے
ए’जाज़ मुँह तके है, तिरे लब के नाम का
क्या कहिये दिमाग़ उसका, कि गुलगश्त में कल मीर
रहने के क़ाबिल तो हरगिज़ थी न यह इब्रत सराय
उम्र आवारगी में सब गुज़री
کیا کہیے دماغ اس کا، کہ گل گشت میں کل میر
رہنے کے قابل تو ہر گز تھی نہ یہ عبرت سراے
عمر آوارگی میں سب گزری
اعجاز منہ تکے ہے، ترے لب کے نام کا
मुरीद-ए-पीर-ए-मुग़ाँ, सिदक़ से न हम होते
है इश्क़ में सब्र नागवारा
ہے عشق میں صبر ناگوارا
مرید پیر مغاں، صدق سے نہ ہم ہوتے
क्या कहे हाल, कहीं दिलज़दः जा कर अपना
उन ने खेंचा है मिरे हाथ से, दामाँ अपना
ان نے کھینچا ہے مرے ہاتھ سے، داماں اپنا
کیا کہے حال، کہیں دل زدہ، جاکر اپنا
दिल ’अजब शहर था ख़याँलों का
करता हूँ अल्लह अल्लाह, दर्वेश हूँ सदा का
हमेशः इल्तिफ़ात उस का, किसू के बख़्त से होगा
کرتا ہوں اللہ اللہ، درویش ہوں سدا کا
ہمیشہ التفات اس کا، کسو کے بخت سے ہوگا
دل عجب شہر تھا، خیالوں کا
गो बेकसी से, इश्क़ की आतश में जल बुझा
ख़ानः आबादी हमें भी दिल की है, यूँ आरजू
डरता हूँ, मालिकान-ए-जज़ा, छाती देखकर
گوبیکسی سے، عشق کی آتش میں جل بجھا
خانہ آبادی ہمیں بھی دل کی ہے، یوں آرزو
ڈرتا ہوں، مالکان جزا، چھاتی دیکھ کر
बहार आई चलो चमन में, हवा के द्वपर भी रंग आया
कोशिश में सर मारा, लेकिन दर प् किसी के जा न सका
ख़ूब किया, जो अहल-ए-करम के जूद का कुछ न ख़याल किया
بہار آئی چلو چمن میں، ہوا کے اوپر بھی رنگ آیا
کوشش میں سرمارا، لیکن درپہ کسی کے جانہ سکا
خوب کیا، جو اہل کرم کے جود کا کچھ نہ خیال کیا
दूर बहुत भगो हो हम से, सीख तरीक़ गि़ज़ालों का
इश्क़ हमारे ख़्याल पड़ा है, ख़्वाब गया आराम गया
रखे रहते हैं दिल पर हाथ अय मीर
رکھے رہتے ہیں دل پر ہاتھ اے میر
عشق ہمارے خیال پڑا ہے، خواب گیا آرام گیا
دور بہت بھاگو ہو ہم سے، سیکھ طریق غزالوں کا
आज हमारा दिल तड़पे हे, कोई उधर से आवेगा
बाद हमारे इस फ़न का जो काई माहिर होवेगा
بعد ہمارے، اس فن کا جو کوئی ماہر ہووے گا
آج ہمارا دل تڑپے ہے، کوئی ادھر سے آوے گا
देर, बद’अहूद वह जो यार आया
गुर्बत है दिल आवेज़ बहुत, शहर की उस के
दिल तड़पे है, जान खपे है, हाल जिगर का क्या होगा
गै़र अज़ खु़दा की ज़ात, मिरे घर में कुछ नहीं
غربت ہے دل آویز بہت، شہر کی اس کے
غیر از خدا کی ذات، مرے گھر میں کچھ نہیں
دیر، بد عہد وہ جویار آیا
دل تڑپے ہے، جان کھپے ہے، حال جگر، کا کیا ہوگا
किस की मस्जिद, कैसा मैख़नः कहाँ के शैख़-ओ-शाब
फूल इस चमन के, देखते क्या क्या झडे हैं हाय
जो क़ाफ़ले गये थे, उन्हों की उठी भी गर्द
پھول اس چمن کے، دیکھتے کیا کیا جھڑے ہیں ہائے
کس کی مسجد، کیسا میخانہ، کہاں کے شیخ وشاب
جو قافلے گئے تھے، انھوں کی اٹھی بھی گرد
चारे, उचक्के, सिख, मरहट्टे, शाह-ओ-गदा, ज़र ख़्वाहाँ है
कल कुछ सबा हुई थी गुल अफ़्शँ क़फ़स में भी
इल्तिफ़ात-ए-ज़मानः पर मत जा
पल्कों पर थे पारः-ए-जिगर, रात
التفات زمانہ پر مت جا
چور، اچکے، سکھ، مرہٹے، شاہ وگدا، زر خواہاں ہیں
کل کچھ صبا ہوئی تھی گل افشاں قفس میں بھی
پلکوں پہ تھے پارۂ جگر، رات
मुखड़े से उठाई उन ने जुल्फ़ें
जागे थे हमारे बख़्त-ए-खुफ़तः
फिर न आये, जो हुए ख़ाक में जा आसूदा
پھر نہ آئے، جو ہوئے خاک میں جا آسودہ
جاگے تھے ہمارے بخت خفتہ
देर कुछ खिंचती, तो कहते भी मुलाक़ात की बात
अब तो चुप लग गई है हैरत से
اب تو چپ لگ گئی ہے حیرت سے
دیر کچھ کھنچتی، تو کہتے بھی ملاقات کی بات
हुर्मत में मैं के, कहने से वा’इज़ कें, है फ़ुतूर
देखें तो, क्या दिखये, यह इफ्रात-ए-इश्तियाक़
बुलबुल के बोलने से, हे क्यों बेदिमारा गुल
دیکھیں تو، کیا دکھائے، بہ افراط اشتیاق
بلبل کے بولنے سے، ہے کیوں بے دماغ گل
حرمت میں مے کے، کہنے سے واعظ کے ہے فتور
होती है गर्चे कहने से यारो, पराई बात
अजब नहीं है, न जाने जो मीर चाहे की रीत
عجب نہیں ہے، نہ جانے جو میر چاہ کی ریت
ہوتی ہے گرچہ کہنے سے یارو، پرائی بات
मारना आशिकों का गर है सवाब
फूल गुल, शम्स-ओ-क़मर, सारे ही थे
दिल की तह की कही नहीं जातनी, नाजुक है असरार बहुत
مارنا عاشقوں کا گر ہے ثواب
پھول گل، شمس و قمر، سارے ہی تھے
دل کی تہ کی کہی نہیں جاتی، نازک ہیں اسرار بہت
आये ळै मीर, मुँह को बनाये ख़फ़ा से आज
बरअफ्रोख़्तः रु,ख है उस का, किस खूबी से मस्ती में
بر افروختہ رخ ہے اس کا، کس خوبی سے، مستی میں
آئے ہیں میر، منہ کو بنائے خفا سے آج
कहूँ से क्या कहूँ, ने सब्र-ओ-ने क़रार है आज
चश्म हो, तो आईनः ख़ानः दहर
چشم ہو، تو آئینہ خانہ ہے دہر
کہوں س کیا کہوں، نے صبرونے قرار ہے آج
आग सा तू जो अय गुल-ए-तार, आन के बीच
آگ سا تو جو ہوا اے گل تر، آن کے بیچ
आती है ख़ून की बू, दोस्ति-ए-यार के बीच
अय बू-ए-गुल, समझ के महकियो पवन के बीच
اے بوئے گل، سمجھ کے مہکیو یون کے بیچ
آتی ہے خون کی بو، دوستی یار کے بیچ
सुथराओ कर दिया है, तमन्ना-ए-वस्ल ने
मैं बेदिमारा-ए-इश्क़ उठा सेा चला गया
ستھراؤ کر دیا ہے، تمنائے وصل نے
میں بیدماغ عشق اٹھا سو چلا گیا
उस के रंग खिला है शयद, काई फूल बहार के बीच
अय गुल-ए-नौ के मानिन्द
اس کے رنگ کھلا ہے شاید، کوئی پھول بہار کے بیچ
اے گل نو دمیدہ کے مانند
ख़ाक भी सर प डालने को नहीं
क़फ़स तो याँ से गये पर, मुदाम है सय्याद
न दर्दमन्दी से यह राह तुम चेले वर्नः
असीर कर के, न ली तू ने तो ख़्बर सय्याद
اسیر کرکے، نہ لی تونے تو خبر صیاد
نہ درد مندی سے یہ راہ تم چلے ، ورنہ
گل پژمردہ کا، نہیں ممنون
گئے دن عجز و نالے کے کہ اب ہے
دل وہ نگر نہیں، کہ پھر آباد ہو سکے
جاتا ہے آسماں لئے کوچے سے یار کے
دیکھ نہ چشم کم سے ، معمورہ جہاں کو
نہ ملیں گو کہ ہجر میں مر جائیں
مشت خاک اپنی جو پامال ہے یاں، اس پہ نہ جا
دل سے میری شکستیں الجھی ہیں
شکوہ آبلہ ابھی سے میر
حاصل بجز کدورت اس خاکداں سے کیا ہے
ہم بھی پھرتے ہیں یک حشم لے کر
وے لوگ تم نے ایک ہی شوخی میں کھو دئے
مرتے ہیں ہم تو آدم خاکی کی شان پر
صورت پرست ہوتے نہیں معنی آشنا
سحر گوش گل میں کہا میں نے ، جاکر
مذہب سے میرے کیا تجھے تیرا دیاراور
بڑی دولت ہے درویشی جو ہمرہ ہو قناعت کے
اک شور ہے جو عالم کون و فساد میں
مت اس چمن میں ، غنچہ روش، بود و باش کر
ہوتا نہیں ہے باب اجابت کا وا، ہنوز
ابر سیہ قبلے سے اٹھ کر، آیا ہے میخانے پر
دل گئے، آفت آئی جانوں پر
شب اس دل گرفتہ کو واکر، بزور مے
ہوئے خوں آتی ہے باد صبح گاہی سے مجھے
قیس و فرہاد پر نہںی موقوف
آتش دل بجھی نہیں، شاید
جو دیکھو مرے شعر تر کی طرف
میں گم کردہ چمن، زمزمہ پرداز ہے ایک
کیا کہوں تم سے میں کہ کیا ہے عشق
غافل ہیں ایسے، سوتے ہیں گویا، جہاں کے لوگ
ہے آگ کا سا، نالۂ کاہش فزا کا رنگ
اللہ رے عندلیب کی آواز دلخراش
کیا بلبل اسیر ہے بے بال و پر کہ ہم
کر سیر جذب الفت، گلچیں نے کل چمن میں
بیٹھے ہم اپنے طور سے مستوں میں ، جب اٹھے
ہم اپنے چاک جیب کو سے رہتے یا نہیں
کرتے ہیں گفتگو، سحر اٹھ کر ، صبا سے ہم
گرچہ آوارہ، جو صبا ہیں ہم
مجمع میں قیامت کے ، اک آشوب سا ہوگا
ہے تہ دل بتوں کا کیا معلوم
کیا لطف تن چھپا ہے، مرے تنگ پوش کا
جو دیکھو وہ قامت، تو معلوم ہو
چاہیں تو تم کو چاہیں، دیکھیں تو تم کو دیکھیں
جی کے تئیں چھپاتے نہیں، پوں تو، غم سے ہم
تلواریں کتنی کھائی ہیں سجدے میں، اسطرح
کھا گئے یاں کے فکر، سو موہوم
بیکلی، بے خودی، کچھ آج نہیں
یارب اس محبوب کو پھر اک نظر دیکھیں گے ہم
سوزش دل سے مفت گلتے ہیں
اس کے کوچے سے جو اٹھ، اہل وفا جاتے ہیں
نہ گیا خیال زلف جفا شعاراں
کہیو قاصد، جو وہ پوچھے ہمیں، کیا کرتے ہیں
تمہیں بھی چاہیے ہے کچھ تو پاس چاہت کا
سہل اس قدر نہیں ہے، مشکل پسندی اپنی
اس گلشن دنیا میں شگفتہ نہ ہوا میں
آسودہ کیوں نکہ ہوں میں، کہ مانند گرد باد
اب کس کس اپنی خواہش مردہ کو روئیے
خار کو جن نے لڑی موتی کی کر دکھلایا
رکھا کر ہاتھ دل پر، آہ کرتے
مت سہل ہمیں جانو، پھرتا ہے فلک برسوں
غافل نہ رہیو ہم سے ، کہ ہم وے نہیں رہے
کوئی نہیں جہاں میں جو اندوہ گیں نہیں
ہم آپ ہی کو، اپنا مقصود جانتے ہیں
تلوار غرق خوں ہے، آنکھیں گلابیاں ہیں
چلا نہ اٹھ کے وہیں چپکے چپکے پھر تو میر
مانند شمع، ہم نے حضور اپنے یار کے
جفائیں دیکھ لیاں، بے وفائیاں دیکھیں
خاک آدم ہی ہے تمام زمیں
ہفت اقلیم ہر گلی ہے ، کہیں
بارہا وعدوں کی راتیں آئیاں
میں کون ہوں،، اے ہم نفساں، سوختہ جاں ہوں
اگر چہ نشہ ہوں سب میں خم جہاں میں لیک
اے عدم ہونے والو، تم تو چلو
خوبرو سب کی جان ہوتے ہیں
ہر نقش پا ہے شوح ترا، رشک یاسمن
خون ٹپکے ہے پڑا، نوک سے ہر اک کی ہنوز
آجائیں ہم نظر جو کوئی دم، بہت ہے یاں
نہ بھائی، ہماری تو قدرت نہیں
لب ترے لعل ناب ہیں دونوں
مدعی مجھ کو کھڑے صاف برا کہتے ہیں
کوئی بجلی کا ٹکڑا، اب تلک بھی
عشق میں، جی کو صبر و تاب کہاں
اٹھاتے ہاتھ کیوں نو مید ہو کر
یارو، مجھے معاف رکھو، میں نشے میں ہوں
اب کی جنوں میں، فاصلہ شاید نہ کچھ رہے
ہم نے بھی نذر کی ہے ، کہ پھرے چمن کے گرد
آج ہمارے گھر آیا تو، کیا ہے یاں جو نثار کریں
ہے عاشقی کے بیچ ستم دیکھنا ہے لطف
جور کیا کیا، جفائیں کیا کیا ہیں
چمن میں جاکے بھرو تم گلوں سے جیب و کنار
دم زدن مصلحت وقت نہیں اے ہمدم
کہے تو ہم نشیں، رنگ تصرف کچھ دکھاؤں میں
ساتھ اپنے نہیں اسباب مساعد مطلق
کبھو ملے ہے سو وہ یوں، کہ پھر ملا نہ کریں
جب لگ گئے جھمکنے، رخسار یار دونوں
بہت نا آشنا تھے لوگ یاں کے
رفتگاں میں جہاں کے ، ہم بھی ہیں
زبانیں بدلتے ہیں ہر آن خوباں
گزرے گر دل میں ہو کر، تو ایک نگاہ ضروری ہے
تری پلکیں، چبھتی میں بھی ہیں
بھرے رہتے ہیں سارے پھول ہی جس کے گریباں میں
کبھو خورشید و مہ کو دیکھ رہتا ہوں، کبھو گل کو
شہروں ملکوں میں جو یہ میر کھاتا ہے میاں
گرفتہ دل ہوں، سر ارتباط مجھ کو نہیں
ہم بھی تو فصل گل میں، چل ٹک تو پاس بیٹھیں
جائے ہے جی، نجات کے غم میں
دور اس سے جی چکے ہیں، ہم اس روز گار میں
خدا ساز تھا، آذر بت تراش
کس دن چمن میں یارب، ہوگی صبا گل افشاں
پیام اس گل کو، اسے کے ہاتھ دیتے
رہا تھا دیکھ اودھر میر چلتے
اب کی ماہ رمضان دیکھا تھا پیمانے میں
کوئی طرف یاں ایسی نہیں، جو خالی ہووے اس سے میر
جہاں کے باغ کا یہ عیش ہے، کہ گل کے رنگ
وہ تو نہیں کہ دیکھیں اس آئینہ رو کو صبح
صبح ہوئی، گلزار کے طائر، دل کو، اپنے ٹٹولیں ہیں
نازکی ہائے رے، طالع کی نکوئی سے کبھو
اب در باز بیاباں ہیں قدم رکھیے میر
ہم کو کہنے کے تئیں، بزم میں جا دیتے ہیں
گوندھ کے گویا پتی گل کی، وہ ترکیب بنائی ہے
غم ہجراں میں گھبرا کر اٹھا میں
یوں ناکام رہیں گے کب تک، جی میں ہے اک کام کریں
شور نہیں یاں سنتا کوئی میر قفس کے اسیروں کا
عشق نے ہم کو مار رکھا ہے، جی میں اپنے تاب نہیں
دل جلتے کچھ بن نہیں آتی، حال بگڑتے جاتے ہیں
بہار آئی، مزاجوں کی سبھی تدبیر کرتے ہیں
حاکم شہر حسن کے ظالم، کیونکہ ستم ایجاد نہیں
نہ سمجھو مجھے بے خبر اس قدر
شوخی چشمی تری، پردے میں ہے جب تک، تب تک
شاید بہار آئی ہے، دیوانہ ہے جہاں
فلک نے گر کیا رخصت مجھے، سیر بیا باں کو
تا چند کوچہ گردی، جیسے صبا، زمیں پر
خط لکھ کے کوئی سادہ نہ اس کو، ملول ہو
گر بہشت آویے تو آنکھوں میں مری پھیکی لگے
آرام ہو چکا، مرے جسم نزار کو
خوبی یہی نہیں ہے، کہ انداز و ناز ہو
جس راہ ہو کے آج میں پہونچا ہوں تجھ تلک
گل ہو، مہتاب ہو، آئینہ ہو، خورشید ہو، میر
شیخ جی آؤ مصّلی گرو جام کرو
ملتفت ہوتا نہیں ہے گاہ تو
دیر رہنے کی جا نہیں یہ چمن
یہی مشہور عالم ہیں، دو عالم
قطرہ قطرہ اشک باری تا کجا پیش سحاب
ہو کوئی بادشاہ، کوئی یاں وزیر ہو
ہوگا کسو دیوار کے سائے میں پڑا میر
سر خاک آستاں پہ تمہارے رہا مدام
کھینچا ہے آدمی نے بہت دور آپ کو
اس باغ کے ہر گل سے ، جھپک جاتی ہیں آنہیں
مستی ان آنکھوں سے نکلے ہے، اگر دیکھو خوب
دشت و کوہ میں میر پھرو تم، لیکن ایک ادب کے ساتھ
اب کی بہت ہے شور بہاراں، ہم کومت زنجیر کرو
بارے دنیا میں رہو غم زدہ یا شاد رہو
یہ سرا ہونے کی جاگہ نہیں، بیدار رہو
کیا آنکھ بند کرکے مراقب ہوئے ہو تم
اڑایا غم نے اب کے سوکھے پتوں کی روش ہم کو
چاک قفس سے آنکھیں لگی کب تلک رہیں
گردش میں جو کوئی ہو، رکھے اس سے کیا امید
دل کھلتا ہے واں، صحبت، رندانہ جہاں ہو
ہم بیخودان مجلس تصویر، اب گئے
میری طرف کی یارو، اس سے بات کوئی کہتے ہو کہو
گردش چشم سیہ کاسہ سے، جمع نہ رکھو خاطر تم
فرصت بود وباش یاں کم ہے
فکر سنے اپنے گزرتا ہے زمیں کاوی میں دن
چمن میں دلخراش آواز آتی ہے چلی، شاید
جا کے پوچھا جو میں یہ کار گھر مینا میں
آگ تھے ابتدائے عشق میں ہم
اب حال اپنا، اس کے ہے دلخواہ
رات مجلس میں تری، ہم بھی کھڑے تھے چپکے
بند ے کے درد کو، کوئی نہیں پہونچتا
نام ہیں خستۂ و آوارۂ و بد نام مرے
لطف کیا، ہر کسو کی چاہ کے ساتھ
وصل اس کا، خدا نصیب کرے
آنکھ اس منہ پہ کس طرح کھولوں
یہ جو مہلت جسے کہیں ہیں عمر
ہے تمنائے وصال اس کی، مری جان کے ساتھ
نہ باتیں کرو سر گرانی کے ساتھ
ہم جانتے، تو عشق نہ کرتے کس وکے ساتھ
ملتا رہا کشادہ جبیں حوب و زشت سے
گل گل شگفتہ مے سے ہوا ہے نگار، دیکھ
آنکھوں میں آشنا تھا، مگر دیکھا تھا کہیں
اے کاش، فصل گل میں گئی ہوتی اپنی جان
خوش ہیں دیوانگی میں سے سب
دل کو تسکین نہیں، اشک دمادم سے بھی
یہ چشم آئینہ دار روتھی، کسو کی
دل کس قدر شکستہ ہوا تھا کہ رات میر
بیچ میں ہم ہی نہ ہوں، تو لطف کیا
اس کے ایفائے عہد تک نہ جیے
آہ میری زبان پر آئی
کعبے سو بار وہ گیا تو کیا
کیا شہر میں گنجائش، مجھ بے سرو پا کو ہو
شوخئی جلوہ اس کی، تسکین کیونکہ بخشے
ترے کوچے کے شوق طوف میں، جیسے بگولا تھا
لا علاجی ہے جو رہتی ہے مجھے آوارگی
باہم سلوک تھے، تو اٹھاتے تھے نرم گرم
کچھ موج ہوا پیچاں، اے میر نظر آئی
ہو گئی شہر شہر رسوائی
میری پرسش پہ ، تری طبع اگر آوے گی
کیا کروں شرح، خستہ جانی کی
اپنے کوچے میں نکلیو، تو سنبھالے دامن
میں پا شکستہ جا نہ سکا قافلے تلک
رہی نہ گفتہ، مرے دل میں، داستاں میری
آج کل بیقرار ہیں ہم بھی
مدت سے ہیں اک مشت پر، آوارہ چمن میں
بغیر دل، کہ یہ قیمت ہے سارے عالم کی
گرے سے داغ سینہ، تازہ ہوئے ہیں سارے
کچھ کرو فکر، مجھ دوانے کی
میر دریا ہے، سنے شعر زبانی اس کی
یہ جو رو جور کش تھے کہاں، آگے عشق میں
دریائے حسن یار، تلاطم کرے کہیں
لطف پر اس کے، ہم نشیں، مت جا
پیدا کہاں ہیں ایسے پراگندہ طبع لوگ
دلیل اس بیاباں میں، دل ہی ہے اپنا
نرگس مستانہ، باتیں کرے ہے درہم
بات کیا آدمی کی بن آئی
گر کر اس کی گلی میں، خاک میں مفت
آج ہمیں بے تابی سے ہی، صبر کی دل سے رخصت تھی
دیکھو تو، دل کہ جاں سے اٹھتا ہے
مجھے میر تاگور کاندھا دیا تھا
میں چراغ صبح گاہی ہوں، نسیم
پھرتے ہیں میر خوار، کوئی پوچھتا نہیں
دلی میں اب کی آکر، ان یاروں کو نہ دیکھا
شہادت گاہ ہے ، باغ زمانہ
تجھے نسبت جو دیتے ہیں شرارو برق و شعلہ سے
گئے جی سے ، چھوٹے بتوں کی جفا سے
برنگ ہوئے گل، اس باغ کے ہم آشنا ہوتے
لخت دل کب تک الٰہی، چشم سے ٹپکا کریں
عشق ان کو ہے جو یار کو اپنے دم رفتن
چمن، یار، تیرا ہوا خواہ ہے
عشق میں نے خوف و خطر چاہیے
ہستی اپنی، حباب کی سی ہے
اب جو اک حسرت جوانی ہے
دل کے معمورے کی مت کر فکر، فرصت چاہیے
پاس ناموس عشق تھا ورنہ
دیکھی نہ ایک چشمک گل بھی چمن میں آہ
جو ہو میر بھی اس گلی میں صبا
خوب ہی اے ابر، اک شب آؤ، باہم روئیے
جام خوں بن نہیں ملتا ہے ہمیں صبح کو آب
جب نام ترا لیجئے تب چشم بھر آْویے
نہ پوچھ کچھ، لب ترسا بچے کی کیفیت
مشہور چمن میں، تری گل پیر ہنی ہے
ہوا ہے دن تو جدائی کا، سو تعب سے تمام
خوش سر انجام تھے وے، جلد جو ہشیار ہوئے
اب کرکے فراموش تو ناشاد کرو گے
ہم ہوئے، تم ہوئے، کہ میر ہوئے
ہوا مذکور نام اس کا، کہ آنسو بھہ چلے منھ پر
شش جہت سے اس میں ظالم، بوئے خوں کی راہ ہے
نالہ تا آسمان جاتا ہے
سرار دل کا، یہ کاہے کو ڈھنگ تھا آگے
جب کہ پہلو سے یار اٹھتا ہے
اے حب جاہ والو، جو آج تا جور ہے
شب گئے تھے باغ میں، ہم ظلم کے مارے ہوے
کرے کیا، کہ دل بھی تو مجبور ہے
قصد گر امتحان ہے، پیارے
زخموں پہ زخم جھیلے داغوں پہ داغ کھائے
ہم نے جانا تھا، سخن ہوں گے زباں پر کتنے
مہو شاں پوچھیں نہ ٹک، ہجراں میں گر مر جائیے
بارے نسیم، ضعف سے کل ہم اسیر بھی
رہتے ہیں داغ اکثر، نان و نمک کی خاطر
جم گیا خوں کف قاتل پہ ترا میر زبس
جن جن کو تھا یہ عشق کا آزار، مر گئے
رکا جاتا ہے جی اندر ہی اندر آج گرمی سے
حصول کام کا دلخواہ یاں ہوا بھی ہے
اب سب کے روز گار کی صورت بگڑ گئی
وا اس سے سر حرف تو ہو، گو کہ یہ سر جائے
لپٹا ہے دل سوزاں کو اپنے میر نے خط میں
مجھ سوز بعد مرگ سے آگاہ کون ہے
اکثر آلات جور، اس سے ہوئے
اس دشت میں اے سیل سنبھل ہی کے قدم رکھ
غیروں کا ساتھ موجب صد وہم ہے بتاں
تجھ کو مسجد ہے، مجھ کو میخانہ
نہیں وسواس جی گنوانے کے
تم نے جو اپنے دل سے بھلایا ہمیں، تو کیا
روز آئے پہ نہیں نسبت عشقی موقوف
کاہے کو یہ انداز تھا اعراض بتا ں کا
چل قلم، غم کی رقم کوئی حکایت کیجے
فیقرانہ آئے، صدا کر چلے
دور میں چشم مست کے تیرے
زیر فلک بھلا تو، رووے ہے آپ کو میر
تازگی داغ کی، ہر شام کو ہے ہیچ نہیں
کرو تو کل کہ عاشقی میں نہ یوں کرو گے تو کیا کرو گے
ہے جو اندھیر شہر میں، حورشید
ادھر سے ابر اٹھ کر جو گیا ہے
صبح وہ آفت اٹھ بیٹھا تھی، تم نے نہ دیکھا صد افسوس
عمر بھر ہم رہے شرابی سے
ہوگا ستم و جور سے تیرے ہی کنایہ
اسیر زلف کرے، قیدی کمند کرے
اپنے ہی دل کا گنہ ہے جو جلاتا ہے مجھے
چشم گل باغ میں مندی جاہے
کعبے میں جاں بلب تھے، ہم دوری بتاں سے
بہار آئی ہے، غنچے گل کے نکلے ہیں گلابی سے
بھری آنکھیں کسو کی پونچھتے، گر آستیں رکھتے
تم چھیڑتے ہو بزم میں ، مجھ کو تو ہنسی سے
آہ کیا سہل گزر جاتے ہیں جی سے عاشق
تری چال تیڑھی، تری بات روکھی
یا بادۂ گلگوں کی، حاطر سے ہوس جاوے
سو رنگ، کی جب خوبی، پاتے ہیں اسی گل میں
ہم نے بھی نذر کی ہے، پھریں گے چمن کے گرد
پھولوں کی سیج پر سے ، جو بے دماغ اٹھے
گل گئے، بوٹے گئے، گلشن ہوئے برہم گئے
جائے غیرت ہے خاکدان جہاں
حنا سے یار کا پنجہ نہیں ہے گل کے رنگ
ٹک ٹھہرنے دے تجھے شوخی، تو ٹک ٹھہرائیے
دہر کا ہو گلہ کہ شکوۂ چرخ
کیا کہیے، کلی سا وہ دہن ہے
رشتہ کیا ٹھہرے گا یہ، جیسے کہ مو، نازک ہے
ہم مست ہو بھی دیکھا، آخر مزا نہیں ہے
کیا تن نازک ہے، جاں کو بھی حسد جس تن پہ ہے
کوفت سے جان لب پہ آئی ہے
ہم طور عشق سے، تو واقف نہیں ہیں، لیکن
لگ چلے ہے مگر اس گیسوئے عنبر بوسے
کار دل اس مہ تمام سے ہے
عبرت سے دیکھ جس جا یاں کوئی گھر بنے ہے
کیسے نازو تبختر سے ، ہم اپنے یار کو دیکھا ہے
ہم چمن میں گئے تھے، وانہ ہوئے
خدا کرے، مرے دل کو ٹک اک قرار آوے
رنگ لیتی ہے سب ہوا اس کا
دن فصل گل کے جاتے ہیں اب کے بھی باؤ سے
قصر و مکان و منزل، ایکوں کو سب جگہ ہے
چلتے ہو تو چمن کو چلیے، کہتے ہیں کہ بہاراں ہے
کیا کہیے، کچھ بن نہیں آتی، جنگل جنگل ہوآئے
موسم ہے، نکلے شاخووں سے پتے ہرے ہرے
گلستاں کے ہیں دونوں پلّے بھرے
پتا پتا بوٹا بوٹا حال ہمارا جانے ہے
دامان دراز اس کا جوں صبح، نہیں کھینچا
چارہ گر اس شہر کے ہوں، تو فکر کریں آبادی کا
زلفیں اس کی، ہوا کریں برہم
کیا کہیے، اپنے عہد میں جتنے امیر تھے
سب مزے در کنار عالم کے
تو ہی کر انصاف صبا ٹک، باغوں باغوں پھرے ہے تو
آنکھ مستی میں، کسو پر نہیں پڑتی اس کی
کہتے ہیں، مرنے والے یاں سے گئے
پڑتا ہے پھول برق سے گلزار کی طرف
وہ دل نہیں رہا ہے، نہ اب وہ دماغ ہے
بزم میں پوچھا، تو یوں انجان ہو
شاید شراب خانے میں، شب کو رہے تھے میر
اس مرے نو بادۂ گلزار خوبی کے حضور
ہمیں جس جائے کل غش آگیا تھا
عشق کیا کوئی اختیار کرے
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