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aaj ik aur baras biit gayā us ke baġhair

jis ke hote hue hote the zamāne mere

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लेखक: परिचय

अध्यात्मिक मान्यताओं के साथ साथ इंसान के लिए शुरू से जो सबसे आकर्षक चीज़ चली आरही है वो है हुस्न के जल्वा-नुमाई के दीदार की ख़्वाहिश। हज़रत मूसा ने जब कोह-ए-तूर पर हुस्न-ए-अज़ली को नूर की शक्ल में देखा तो बेहोश हो गए। हमारे शायरों में मीर तक़ी मीर ने ये देखा कि साक्षात सौन्दर्य जब महफ़िल में आया तो ऐसी मस्ती का आलम तारी हुआ कि उनकी निगाहें रुख़ पर बिखर बिखर गईं और एक नक़ाब का काम करने लगीं नज़ारा न हो सका। हज़रत दाग़ ने रुख़-ए-रौशन और शम्मा के हुस्न-ओ-नूर का इंतख़ाब परवाने पर छोड़ दिया ख़ुद कुछ फ़ैसला न करसके। उनके बाद हज़रत जलील ने हुस्न की जलवागाह को देखकर यह महसूस किया कि न तो निगाहें बिजली हैं और न ही चेहरा सूर्य है लेकिन ख़ुद उनमें देखने की ताब और बरदाशत की क़ुव्वत नहीं है बावजूद इसके कि हुस्न इंसानी शक्ल में है,
निगाह बर्क़ नहीं चेहरा आफ़ताब नहीं
वो आदमी है मगर देखने की ताब नहीं

जलील के शे’र में “आदमी” का लफ़्ज़ इस्तेमाल किया गया है जब कि पिछले शायरों के अशआर में ऐसा नहीं है यही बीज शब्द इस शे’र का हुस्न है और इसी लिए उसे क़बूल आम की सनद मिली है। अगर ये मिसरा यूं होता कि,

न जाने क्या है जिसे देखने की ताब नहीं

तो शे’र का मज़मून मामूली सा होजाता। इस हसीन शे’र के रचयिता जनाब जलील मानकपुरी का विस्तृत परिचय ये है।

जलील हसन 1862 ई. में क़स्बा मानकपुर (ज़िला प्रताबगढ़, उत्तरप्रदेश) में पैदा हुए। उनके दादा का नाम अब्दुर्रहीम और वालिद का नाम अब्दुलकरीम था। ये न मालूम हो सका कि उनके पूर्वज मानकपुर में कब और कहाँ से आकर आबाद हुए थे। मानकपुर के मुहल्ला सुलतानपुर में उनका पैतृक मकान था जिससे लगे एक मस्जिद में हाफ़िज़ अब्दुलकरीम मानकपुर के रईसों और ज़मीनदारों के बच्चों को क़ुरआन शरीफ़ और दीनियात की शिक्षा देते थे। जलील हसन, अब्दुलकरीम की दूसरी बीवी के बड़े बेटे थे। ये सब 9 भाई-बहन थे। जलील ने आरंभिक शिक्षा मानकपुर में ही अपने वालिद से हासिल की। बारह बरस की उम्र में पूरा क़ुरआन शरीफ़ हिफ़्ज़ (कंठस्थ) कर लिया। रिवाज के मुताबिक़ फ़ारसी और अरबी भाषाओँ और कलाओं का अध्ययन जारी रखा और यह सिलसिला बीस बरस की उम्र तक जारी रहा। इसके बाद आगे की शिक्षा के लिए वो लखनऊ आगए और वहाँ के मशहूर-ओ-मारूफ़ मदरसा फ़िरंगी महल में दाख़िला लिया। मौलाना अब्दुलहलीम और मौलाना अब्दुलअली जैसे योग्य अध्यापकों की निगरानी में अरबी फ़ारसी व्याकरण, तर्कशास्त्र और तत्वमीमांसा (तर्क और अन्य विज्ञान) की शिक्षा पूरी कर के मानकपुर वापस आगए। शे’र-ओ-शायरी का शौक़ शुरू उम्र से था जिसको लखनऊ के अदबी माहौल ने और उभार दिया। ख़ुद मानकपुर में भी अह्ल-ए-ज़ौक़ हज़रात की अच्छी ख़ासी तादाद मौजूद थी। जलील के बड़े भाई हाफ़िज़ ख़लील हसन ख़लील भी अच्छे शायर थे। उनकी संगत में रह कर जलील ने भी ग़ज़ल कहना शुरू कर दी। माँ-बाप और परिवार वालों ने कभी उनकी शे’री सरगर्मीयों पर एतराज़ नहीं किया। ये दोनों भाई मानकपुर के राजा ताय्युश हुसैन के मुशायरों में भी शिरकत करने लगे और आसपास के मुशायरों में आमंत्रित किए जाने लगे क्योंकि उनका कलाम पसंद किया जाता था। लखनऊ प्रवास के दौरान जलील का परिचय अमीर अहमद मीनाई से हो चुका था। जलील और ख़लील ने संयुक्त अरज़ी अमीर मीनाई को लिखी कि वो उनकी शागिर्दी में आना चाहते हैं। अमीर मीनाई ने ये अर्ज़ क़बूल कर ली। वो उन दिनों रामपुर में थे जहाँ अमीर उल लुग़ात के संपादन का काम जारी था। जलील से पत्राचार का सिलसिला ज़्यादा दिन नहीं चला बल्कि बहुत आग्रह करके अमीर मीनाई ने जलील को रामपुर बुला लिया और अमीर उल लुग़ात के दफ़्तर का सचिव बना दिया।

यह 1887 ई. का ज़माना था। रामपुर में नवाब हामिद अली ख़ां वालिए रियासत थे जो अब शायरों का ठिकाना हो गया था क्योंकि दिल्ली और फिर लखनऊ के केंद्र ख़त्म हो गए थे। रामपुर का ये नया अदबी संगम दिल्ली और लखनऊ के दबिस्तानों से मिल कर बना था। रामपुर में17 बरस तक जलील पर अमीर मीनाई की मेहरबानियाँ जारी रहीं। उन्होंने वृद्धावस्था में शायरी सुधारने का काम भी जलील के सपुर्द कर दिया था। अमीर उल लुग़ात से सम्बंधित सारे काम तो जलील देखते ही थे। रामपुर के आर्थिक हालात ठीक न थे इसलिए जो रक़म अमीर उल लुग़ात के लिए आवंटित थी वो दाख़िल दफ़्तर हो गई। लुग़त के काम को जारी रखने के लिए अमीर मीनाई की नज़रें भोपाल और हैदराबाद राज्य के प्रमुखों की तरफ़ गईं। इस काम के लिए जलील भोपाल गए मगर काम न बना। सन् 1899 में निज़ाम सादस कलकत्ता आए थे। उनकी वापसी बनारस के रास्ते हुई तो अमीर मीनाई उनसे मिलने जलील के साथ बनारस गए। निज़ाम से हाज़िरी के बाद यह तै हुआ कि अमीर मीनाई हैदराबाद आजाऐं तो काम बन सकता है। अतः सन् 1900 में अमीर मीनाई अपने वो बेटों और जलील के साथ हैदराबाद पहुंचे और हज़रत दाग़ देहलवी के मेहमान हुए जो उन दिनों शाह के उस्ताद थे। फिर क़रीब ही मकान किराए पर लेकर वहाँ रहने लगे। अभी सरकार में हाज़िरी भी नहीं हुई थी कि अमीर मीनाई बीमार पड़ गए। इलाज के बावजूद ठीक न हुए। वो 5 हफ़्ता बीमार रह कर वफ़ात पा गए और दरगाह यूसुफैन में दफ़न हुए। जो लोग शायरी के सिलसिले में अमीर मीनाई से सम्बद्ध थे अब उनके आश्रय जलील बन गए क्योंकि उनके योग्य शागिर्दों में यही सबसे लोकप्रिय थे। हैदराबाद के इब्राहीम ख़ां के हाँ जो मुशायरा होता था उसकी तरह निज़ाम सादस दिया करते थे। चुनांचे जब इस मुशायरे में जलील ने अपनी तरही ग़ज़ल पढ़ी तो उनको बेहद दाद मिली और उसका मतला तो जैसे उनकी पहचान बन गया,

निगाह बर्क़ नहीं चेहरा आफ़ताब नहीं
वो आदमी है मगर देखने की ताब नहीं

जब मुशायरे की रिपोर्ट निज़ाम के मुलाहिज़े में आई तो उन्होंने भी बहुत सराहा। दाग़ देहलवी और नज़्म तबातबाई और महाराजा किशन प्रशाद उनके प्रशंसकों में शामिल थे। जलील का हैदराबाद में ठहरने का मक़सद दरबार तक रसाई हासिल करना था, यह काम महाराजा के ज़रिए मुम्किन था। महाराजा जब शाह-ए-दकन के साथ ऐडवर्ड हफ़्तम के जश्न-ए-ताजपोशी में दिल्ली गए तो उनके हमराह जलील भी थे। इस तरह दोनों एक दूसरे के क़रीब आ गए। इसके बाद जब हैदराबाद में महाराजा ने निज़ाम के सिलवर जुबली के अवसर पर मुशायरे का आयोजन किया तो वहाँ भी जलील का कलाम मुशायरे के बाद निज़ाम ने अपने पास बुला कर सुना और दाद दी। लेकिन कोई स्थायी स्थिति नहीं बनी। 9बरस तक ऐसी ही लाग-डांट का ज़माना रहा। आख़िर किसी शहज़ादे की बिस्मिल्लाह की तक़रीब में निज़ाम को अपने कलाम पर इस्लाह की ज़रूरत हुई तो उन्होंने महाराजा की माध्यम से जलील को तलब किया। चूँकि दाग़ का स्वर्गवास हो चुका था। इसलिए जलील को उस्ताद शाह का ओहदा बज़रिए फ़रमान 16 शव्वाल1327 हि. (सन्1909)अता किया गया, बाद को उन्हें मुसाहिबीन में शामिल कर लिया गया और दाग़ की जगह को पुर किया गया।

सन् 1911 में निज़ाम सादस का देहांत हो गया। उसी साल जॉर्ज पंजुम की ताजपोशी का जश्न दिल्ली में हुआ तो जलील भी निज़ाम साबअ मीर उस्मान अली ख़ां के साथ दिल्ली गए लेकिन कोई बात न हो सकी। निज़ाम साबअ की तख़्तनशीनी के मौक़े पर आम दरबार में जब सल्तनत के श्रेष्ठों के साथ जलील ने भी नज़र गुज़रानी तो निज़ाम ने किंग कोठी पर हाज़िर होने के लिए कहा। इसके बाद किंग कोठी पर मुसाहिबों के साथ जलील की भी हाज़िरी होने लगी। शायरी का ओढ़ना बिछौना हो गई।

जलील ने एक लम्बे संघर्ष के बाद फ़राग़त की मन पसंद ज़िंदगी गुज़ारी और ये सिलसिला 35 बरस तक चलता रहा। अब उम्र भी अस्सी साल से ज़्यादा कर चुकी थी। आख़िर उम्र में कमज़ोर दिमाग़ और रअशा की शिकायत शुरू हो गई। शाही हकीमों ने और डाक्टरों ने इलाज किया लेकिन ब्लडप्रेशर की शिकायत बढ़ती गई। आख़िर दो दिन कोमा में रहने के बाद 6 जनवरी 1946 ई. को देहांत हो गया और ख़ित्ता सालहीन दरगाह यूसुफैन में दफ़न हुए। निज़ाम ने तारीख़ निकाली “दकन गुफ़्त आह उस्ताद जलीले” (1365 हि.)जलील को निज़ाम सादस ने “फ़साहत जंग” और “इमाम अलफ़न” की उपाधियाँ प्रदान की थी।

जलील एक दरवेश सिफ़त भक्त व तपस्वी थे और औसत क़द, छरेरे बदन, रंग गंदुमी दाढ़ी वाले चेहरे के मालिक थे। पुराने ढंग के लखनवी पट्टे रखते थे और सर पर ख़ास तरह की स्याह मख़मली टोपी, शेरवानी और सलीम शाही जूता पहनते थे। आँखों में गहरा सुर्मा लगाते थे और पान नोशी से होंट सुर्ख़ रहते थे। सरकारी आयोजनों में सफ़ेद पगड़ी और कमर में बकलोस और डिनर या बैंक्वेट में शिरकत के वक़्त अंग्रेज़ी लिबास पहनते थे।

उनके काव्य संग्रह ताज-ए-सुख़न, जान-ए-सुख़न और रूह-ए-सुख़न के नाम से प्रकाशित हुए और नस्र में 1908 ई.में “तज़कीरा-ओ-तानीस”, “मयार-ए-उर्दू” 1924 ई.में मुहावरात का लुग़त और 1940 ई. में उर्दू का उरूज़ नामी कुतुब-ओ-रसाइल शाया हुए। जलील का तक़रीबाने अमल, क़सीदा कलाम फ़िलबदीह है। रईसों और दो बादशाहों की मुसाहिबत और उस्तादी की वजह से उनको जल्दी में मौक़े के अनुकूल अपनी शायराना सलाहियतों का उपयोग करना पड़ता था। इस्लाह का काम भी क़लम बरदाश्ता होता था। इसलिए जलील के कलाम का एक बड़ा हिस्सा शब्द की धाराप्रवाह प्रकृति और शक्ति को दर्शाता है। कलात्मक प्रतिभा ग़ज़ल में नुमायां हैं इस बारे में ख़ुद उनका एक शे’र हाल की हक़ीक़त पर पूरा उतरता है,

अपना दीवान मुरक़्क़ा है हसीनों का जलील
नुक्ताचीं थक गए कुछ ऐब निकाले न गए

यक़ीनन जलील के कलाम की एक बड़ी ख़ुसूसियत ये है कि वो दोषरहित है किसी जगह बाज़ारू पन, सक़ल मुबान की दिक़्क़त या बयान में अस्पष्टता या समझने में रुकावट नहीं है। उनकी ग़ज़लों के कुछ बेहद ख़ूबसूरत अशआर नीचे दिए जारहे हैं,

जब मैं चलूं तो साया भी अपना न साथ दे
जब तुम चलो ज़मीन चले आसमां चले

बात साक़ी की न टाली जाएगी
कर के तौबा तोड़ डाली जाएगी

हुनरवर शायर और जौहर के पारखी हुक्मराँ में जो क़रीबी ताल्लुक़ात मुसलमानों के अब्बासी दौर-ए-हकूमत से चले आरहे थे हज़रत जलील और उस्मान अली ख़ां को इसकी आख़िरी कड़ी समझना चाहिए। जलील के देहांत के दो बरस के बाद आसिफ़ जाही हुकूमत की बिसात भी उलट गई।

जलील की तस्वीर के सिलसिले में उनके बेटे जनाब डाक्टर अली अहमद जलीली से साक्षात मुलाक़ात की मगर ये मालूम करके मायूसी हुई कि उनकी कोई असल तस्वीर उनके पास नहीं है। एक थी भी तो वो उर्दू एकेडमी के हवाले कर दी गई जो एकेडमी की पत्रिका में मार्च 2000ई. के कवर पर दी गई है। इसके अलावा यही तस्वीर बेहद और टचिंग के बाद जलीली साहब की किताब “फ़साहत जंग जलील” में शामिल है। साबिर दत्त की किताब “चंद तस्वीर-ए- बुताँ” में तस्वीर का बेस्ट (LATERAL INVERSION) के ऐब के साथ दिया गया है यानी दाहिना हिस्सा बायां और बायां दाहिना हो गया है। उन तस्वीरों को सामने रखकर एक पोट्रेट तैयार किया है जो ख़ूबसूरत रंगों के साथ पेश है। शेरवानी औरंगाबाद के हमरो की है जिसका रंग बक़ौल जलीली साहब के हल्का सब्ज़ था।

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