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आवारा बू-ए-गुल की तरह हैं चमन से दूर

रईस वारसी

आवारा बू-ए-गुल की तरह हैं चमन से दूर

रईस वारसी

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    आवारा बू-ए-गुल की तरह हैं चमन से दूर

    लग़ज़ीदा-पा नहीं हैं मगर हम वतन से दूर

    तारीक रास्तों में बिछाते हैं रौशनी

    ऐसे भी कुछ चराग़ जले अंजुमन से दूर

    जिस ने नसीम-ए-सुब्ह को बख़्शी है ताज़गी

    ख़ुशबू वो किस क़दर है परेशाँ चमन से दूर

    वो लोग जिन का ख़ून है रंग-ए-बहार में

    रक्खा गया है उन को ही सेहन-ए-चमन से दूर

    संग-ए-असास होने के एहसास ने हमें

    अब तक रखा है लज़्ज़त-ए-तश्हीर-ए-फ़न से दूर

    अब उस को क्या कहें वही फ़नकार-ए-वक़्त है

    जो शख़्स अस्र-ए-नौ में है मेयार-ए-फ़न से दूर

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