आज़ादी का मंज़र अच्छा लगता है
आज़ादी का मंज़र अच्छा लगता है
शीश महल से छप्पर अच्छा लगता है
ताज अमीर-ए-शहर मुबारक हो तुझ को
दीवानों को पत्थर अच्छा लगता है
बचपन कब का बीत चुका फिर भी मुझ को
माँ के हाथ का बिस्तर अच्छा लगता है
मेरे लहू को पानी की अब चाह कहाँ
ख़ुश्क गले पर ख़ंजर अच्छा लगता है
तेरी याद का चाँद निकलता है जिस दम
मुझ को अकेले शब भर अच्छा लगता है
अपनों में तन्हाई का अब एहसास न पूछ
घर वालों से बे-घर अच्छा लगता है
कौन है किस पे नज़्र करें हम सर अपना
हम को तेरा संग-ए-दर अच्छा लगता है
अपनी ज़ात के अंदर कब तक क़ैद रहूँ
मुझ को ख़ुद से बाहर अच्छा लगता है
माँ के हाथ के भात के लज़्ज़त मत पूछो
साथ में उस के कंकर अच्छा लगता है
हिम्मत है तो दुश्मन से भी प्यार करो
यूँ तो सब को दिलबर अच्छा लगता है
जब भी नमाज़-ए-फ़ज़्र अदा कर लेते हैं
क़सम ख़ुदा की दिन भर अच्छा लगता है
वर्ना प्यास ही दिल को बहलाती है 'हलीम'
तेरे नाम का साग़र अच्छा लगता है
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