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कभी रक़्स-ए-शाम-ए-बहार में उसे देखते

अमजद इस्लाम अमजद

कभी रक़्स-ए-शाम-ए-बहार में उसे देखते

अमजद इस्लाम अमजद

MORE BYअमजद इस्लाम अमजद

    कभी रक़्स-ए-शाम-ए-बहार में उसे देखते

    कभी ख़्वाहिशों के ग़ुबार में उसे देखते

    मगर एक नज्म-ए-सहर-नुमा कहीं जागता

    तिरे हिज्र की शब-ए-तार में उसे देखते

    वो था एक अक्स-ए-गुरेज़-पा सो नहीं रुका

    कटी उम्र दश्त दयार में उसे देखते

    वो जो बज़्म में रहा बे-ख़बर कोई और था

    शब-ए-वस्ल मेरे कनार में उसे देखते

    जो अज़ल की लौह पे नक़्श था वही अक्स था

    कभी आप क़र्या-ए-दार में उसे देखते

    वो जो काएनात का नूर था नहीं दूर था

    मगर अपने क़ुर्ब-ओ-जवार में उसे देखते

    यही अब जो है यहाँ नग़्मा-ख़्वाँ यही ख़ुश-बयाँ

    किसी शाम कू-ए-निगार में उसे देखते

    स्रोत :
    • पुस्तक : Fishaar (पृष्ठ 120)
    • रचनाकार : Jahangir Book Depot
    • प्रकाशन : Jahangir Book Depot (2010)
    • संस्करण : 2010

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